रोजगार के नाम पर छलावा
हिमांशु शेखर
रोजी और रोटी के लिए इंसान का संघर्ष काफी पुराना है। इसके खातिर लोग किसी भी हद को पार करने से नहीं हिचकते हैं। इतिहास गवाह है कि पेट की आग ने ही कई संघर्षों को जन्म दिया है। मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वैश्विक स्तर पर रोजगार एक अहम मुद्दा बन गया है। विश्व के ज्यादातर देश आज बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। विकासशील देशों में तो हालत और भी बुरी है। भारत में भी यह समस्या दिनोंदिन गहराती ही जा रही है। हालांकि, आजादी के बाद इस देश में बेरोजगारी को दूर करने के नाम पर कई योजनाएं बनीं, लेकिन नतीजा 'ढाक के तीन पात' वाला ही रहा। ऐसे में 2004 में सत्ता में आई यूपीए (संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन) ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, 2005 देश के दो सौ जिलों में लागू की। उस वक्त इस महत्वाकांक्षी योजना को लेकर काफी लंबे-चौड़े वायदे किए गए। पर पिछले कुछ महीनों से इस तरह के कई मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे यह पता चल रहा है कि इस योजना में भी भ्रष्टाचार का घुन लग चुका है और अफसरशाही ने तो जैसे इसे असफल बनाने की ही ठान ली है। वैसे, अब इसे देश के हर जिले में लागू करने का सरकारी फरमान जारी हो चुका है और ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में यह योजना जमीनी स्तर पर भी देश के हर जिले तक पहुंच जाएगी। बहरहाल, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजी पाने वालों की अब तक की डगर काफी कठिन रही है। ऐसे में इस योजना की उपयोगिता से जुड़े कई सवाल उठने लगे हैं। वह तबका जो शुरूआत से ही इस योजना का विरोध करता रहा है अब और मुखर हो गया है। इसका मानना है कि यह योजना भी भ्रष्टाचार और अफसरशाही की शिकार हो गई है। इसलिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। वैसे इस तबके के अपने स्वार्थ हैं और इनकी प्राथमिकता में आम लोग नहीं हैं, लेकिन रोजगार गारंटी योजना के बंटाधार को लेकर किसी को भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हर राज्य में इस योजना को असफल बनाने के लिए कुछ लोग सक्रिय हैं। राज्यों की रैकिंग में बिहार आखिरी पायदान पर है और इस प्रांत की बदतर जमीनी हालत भी किसी से छुपी हुई नहीं है। ऐसे में इस राज्य के लिए रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं का महत्व काफी बढ़ जाता है। इस राज्य में यह योजना 2005 में हुए चुनावों की वजह से थोड़ी देर से शुरू हुई। शुरुआत में केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार को इस योजना के तहत 1,159 करोड़ रुपए जारी किए गए थे। इतनी भारी-भरकम रकम मिलने के बावजूद बिहार में इस योजना को सफलतापूर्वक धरातल पर नहीं उतारा जा सका। यह बात कुछ हालिया अध्ययनों से भी साबित हो जाती है। बीते दिनों अमन ट्रस्ट नामक एक गैरसरकारी संस्था ने जहानाबाद और अरवल जिले में एक सर्वेक्षण किया। निष्कर्षों के मुताबिक रोजगार गारंटी योजना के तहत बनने वाले ज्यादातर जाब कार्ड अपूर्ण हैं। कई कार्डों पर या तो फोटो नहीं है और कई पर तो किसी अधिकारी के हस्ताक्षर भी नहीं हैं। इस अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि पूर्ण जॉब कार्ड बनवाने के लिए लोगों से घूस लिया जा रहा है। महिलाओं को जॉब कार्ड बनवाने के लिए तो और भी मशक्कत करनी पड़ रही है। यही हाल राज्य के दूसरे जिलों का भी है। औरंगाबाद में तो राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना की हालत और भी बदतर है। सबसे बड़ी बात कि यहां के लोगों को इस योजना के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। देहात के लोग रोजगार गारंटी योजना का नाम सुनते ही पलट कर सवाल करते हैं कि ये क्या है? खैर, यह भी एक बड़ी विडंबना है कि राज्य सरकार अब तक इस योजना के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के नाम पर अरबों रुपए खर्च कर चुकी है। 2006 के अप्रैल में बिहार सरकार ने जनता तक योजना की जानकारी पहुंचाने के नाम पर चार सौ करोड़ रुपए खर्च किए थे और उसी साल के नवंबर माह में भी इसी मद में तकरीबन इतना ही पैसा खर्च किया गया था। इसके बावजूद आम लोगों के पास सामान्य जानकारियां नहीं हैं। ऐसा संभव है कि यह पैसा सिर्फ कागज पर ही खर्च दिखाया गया हो। ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों और स्थानीय सरकारी मुलाजिम जमकर चक्कलस काट रहे हैं। दरअसल, इस योजना में धांधली के कई तरकीबें घपलेबाजों ने ईजाद कर ली हैं। जाली जाब कार्ड बनवाकर भुगतान लेना सबसे आसान तरीका बन गया है। इसके अलावा मस्टर रोल में हेर-फेर भी बडे पैमाने पर किया जा रहा है और कई स्थानों से तो खबरें यहां तक आई हैं कि इस योजना के तहत होने वाले कार्य जमीन की बजाए सिर्फ कागजों पर ही हुए। इस योजना के तहत काम आबंटित करने के वक्त जरूरतमंद पर पसंद को वरीयता दी जा रही है। इस वजह से यह कहा जा सकता है कि योजना अपने बुनियादी उद्देश्यों से भटकती जा रही है और सत्ता चलाने वालों में यह खुशफहमी बढ़ती जा रही है कि इस योजना के मार्फत गांवों में खुशहाली आ रही है।