Monday, November 17, 2008
एक एनकाउण्टर का मीडिया एनकाउण्टर
जामिया एनकाउण्टर पर कोई सवा महीने तक मीडिया ने अपने तरीके से एनकाउण्टर जारी रखा। इस मसले पर मीडिया दो खेमे में बंटा हुआ साफ तौर पर दिख रहा है। एक खेमा वह है जो मानता है कि यह एनकाउंटर फर्जी है। इस खेमे के कुछ लोग तो इसे एनकाउंटर कहने से भी हिचक रहे हैं। उनका मानना है कि इसे हत्याकांड कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं दूसरा खेमा ऐसा है जो इस एनकाउंटर को सही मानता है।
उसका कहना है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत पुलिस की कार्रवाई को गलत ठहराना सही नहीं है। यहां एक बात बिल्कुल साफ है कि दोनों खेमों में से किसी के पास भी पुख्ता और विश्वसनीय जानकारी नहीं है। इसके बावजूद दोनों तरफ के लोग अपने-अपने निष्कर्ष को बेबाकी के साथ स्थापित करने पर तुले हुए हैं। इस रवैये को देखते हुए यह लगता है कि जिसका हित जिसमें सधता है उसने वैसी लाइन ले ली है। सच के साथ खड़ा होते हुए दूध का दूध और पानी का पानी करने का साहस कोई खेमा नहीं दिखा पा रहा है। जामिया एनकाउंटर के मीडिया कवरेज पर एक रिपोर्ट आई है- दिल्ली ब्लास्टः ए लुक ऐट एनकाउण्टर कवरेज. कुल २७ पृष्ठों की रिपोर्ट है जिसे तैयार किया है दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने। इस रिपोर्ट में महीने भर के दौरान मीडिया द्वारा इस पूरे घटनाक्रम की जिस तरह से रिपोर्टिंग की गयी है उसकी विशद और तटस्थ समीक्षा की गयी है. इस रपट के जरिए यह बात उभर कर सामने आई है कि एक ही घटना के कवरेज में मीडिया में कितना विरोधभास हो सकता है। इस रिपोर्ट में अध्ययन के खातिर अंग्रेजी अखबारों में से टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दि हिंदू और दि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एनकाउंटर संबंधी खबरों का चयन किया गया है। इसके अलावा हिंदी के दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा और उर्दू के राष्ट्रीय सहारा में इस घटना से संबंधित खबरों को अध्ययन का आधर बनाया गया है।
इस रपट से जो बात उभर कर सामने आ रही है उससे साफ है कि पत्रकारिता के नैतिक मूल्य केवल इलैक्ट्रानिक मीडिया से ही नहीं बल्कि प्रिंट मीडिया से भी बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं। बटला हाउस के एल-18 में गोली चलने की शुरूआत को लेकर भी अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग समय बताया गया। 19 सितंबर को हुई इस घटना की खबर अगले दिन के सभी अखबारों के पहले पन्ने पर प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हिंदुस्तान टाइम्स और दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर के मुताबिक गोलीबारी की शुरूआत ग्यारह बजे हुई। जबकि इंडियन एक्सप्रेस ने वहीं के एक निवासी के हवाले से बताया कि गोलीबारी की शुरूआत पौने दस बजे हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने कोई भी समय नहीं प्रकाशित किया। वहीं मेल टुडे ने बताया कि वहां गोलियों की बरसात ग्यारह बजे से शुरू हुई। हिंदुस्तान के मुताबिक गोलीबारी साढ़े दस बजे शुरू हुई। वहीं अमर उजाला ने यह छापा कि गोली चलने की शुरूआत पौने ग्यारह बजे हुई और ग्यारह बजे गोलीबारी समाप्त हो गई।गोलीबारी कितने देर तक हुई, इसको लेकर भी हर अखबार अलग-अलग तथ्य सामने रखते हुए दिखा। हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक गोली पंद्रह मिनट तक चली। वहीं इसी संस्थान के हिंदी अखबार हिंदुस्तान के मुताबिक डेढ़ घंटे तक गोलीबारी हुई। अब पहला सवाल तो यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में एक ही संस्थान के दो अखबारों में इतना विरोधभास आखिर क्यों है? क्या इसे सतही रिपोर्टिंग कहना वाजिब नहीं होगा? खैर, टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक यह मुठभेड़ पचीस मिनट तक चली। मेल टुडे की माने तो गोलीबारी आधे घंटे तक चली। पंजाब केसरी ने यह अविध् एक घंटा बताया जबकि अमर उजाला ने सवा घंटा। वहीं उर्दू के राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक गोलीबारी तकरीबन दो घंटे तक चली। इस मुठभेड़ में कितनी राउंड गोलियां चलीं, इस बात को लेकर भी अखबारों में विरोधभास नजर आया। टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक पचीस राउंड गोलियां पुलिस के तरफ से चलाई गईं जबकि आठ राउंड गोलियां आतंकियों ने चलाईं। इंडियन एक्सप्रेस, दि हिंदू, हिंदुस्तान, पंजाब केसरी और उर्दू राष्ट्रीय सहारा ने बताया कि पुलिस की तरपफ से 22 राउंड गोलियां चलाई गईं। इसमें से किसी ने भी यह नहीं बताया कि दूसरे तरपफ से पफायरिंग कितने राउंड हुई। राष्ट्रीय सहारा हिंदी और अमर उजाला ने भी बताया कि पुलिस ने 22 राउंड गोलियां चलाईं जबकि आतंकियों की तरपफ से आठ राउंड गोलियां चली। इसके अलावा इस रपट में इस घटना से जुड़ी और भी कई तथ्यात्मक विरोधभासों को दर्शाया गया है। आतंकियों से बरामद हथियार को लेकर भी हर अखबार अलग-अलग दावे कर रहा था। इस ऑपरेशन को अंजाम दे रही टीम में पुलिसकर्मियों की संख्या को लेकर भी विरोधभास है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा पांच अधिकारियों के साथ इस घटना को अंजाम दे रहे थे। वहीं मेल टुडे के मुताबिक पंद्रह पुलिसकर्मियों की टीम ने इस घटना को अंजाम दिया। जबकि वीर अर्जुन बताता है कि इस ऑपरेशन में पचास पुलिसकर्मी शामिल थे। नवभारत टाइम्स के मुताबिक पुलिसकर्मियों की संख्या चौबीस थी। इस बात को लेकर भी अखबारी रपटों में साफ फर्क दिखाई देता है कि मोहन चंद शर्मा को कितनी गोली लगी थी। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, मेल टुडे, दि हिंदू, वीर अर्जुन और हिंदी राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी। नवभारत टाइम्स यह संख्या चार और जनसत्ता पांच बता रहा था।दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट की रिपोर्ट कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गयी. अगर गोली आंतकवादियों की बंदूक से निकली थी तो आज तक उसे फोरेंसिक जांच के लिए क्यों नहीं भेजा गया? विशेषज्ञों की जांच-पड़ताल के बावजूद भी आज तक यह बात साफ नहीं हो पायी है कि इंस्पेक्टर शर्मा को गोली पीछे से मारी गयी या आगे से? एक बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है कि इंस्पेक्टर शर्मा को कितनी गोली लगी थी. दो, तीन या फिर और ज्यादा? स्पेशल सेल की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी जबकि जिन डाक्टरों ने आपरेशन किया उनका कहना था कि शर्मा को दो गोली लगी थी. अब ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में तथ्यों को लेकर इतना विरोधभास क्यों है? तथ्यों का विरोधभास सिपर्फ इसी घटना तक सीमित नहीं है। बल्कि आम तौर पर इसे हर छोटी-बड़ी घटना के कवरेज में देखा जा सकता है। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अखबार में प्रकाशित होने से पहले खबरों के तथ्यों की पड़ताल करने की परंपरा खत्म होती जा रही है। यह बात तो स्वीकारना करना ही होगा कि आखिर कोई ना कोई कड़ी कमजोर हुई है।
Tuesday, November 11, 2008
करार पर भ्रम बरकरार
समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है।
आखिरकार भारत और अमेरिका ने परमाणु करार को आखिरी रूप दे ही डाला। दोनों तरफ के सक्षम लोगों ने करार के आखिरी मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए और इस करार ने अमली रूप ले लिया। इस करार का विरोध करने वालों की हर बात की अनदेखी करते हुए मनमोहन सिंह ने इसे अमली रूप देकर यह साबित कर दिया कि अब जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश संचालित हो रहा है उसमें जुबानी विरोध का बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। यह एक गंभीर संकेत है जिसे समझना जरूरी है।
परमाणु करार के मसले पर जितना देशव्यापी विरोध हुआ उतना विरोध हाल के दिनों में किसी मामले पर नहीं दिखा। राजनीतिक स्तर पर भी इस करार को लेकर विरोध का स्वर हर ओर उभर रहा था और अभी भी लोग इसका विरोध कर रहे हैं। करार को अमली रूप देने के खातिर विश्वास मत हासिल करने के दौरान भारतीय लोकतंत्र को शर्मशार करने वाली घटना को पूरी दुनिया ने देखा। हर किसी ने जाना कि सरकार ने विश्वास मत पाने के लिए कैसे रास्ते अख्तियार किए। विश्वास मत पाने को ही सरकार ने करार के प्रति सेंस ऑफ द हाउस मानकर तमाम विरोधों और लोकतांत्रिक परंपराओं को दरकिनार करते हुए इसे आगे बढ़ाया। इससे एक बात तो साफ है कि अब लोकतांत्रिक तरीके से किए जाने वाले विरोध को मौजूदा व्यवस्था महत्व देना उचित नहीं समझती। इससे यह बात भी निकलकर सामने आ रही है कि अब अगर सही मायने में किसी मसले पर किसी समूह को विरोध दर्ज कराना हो तो उसे इसके लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। ऐसे में फिर लोकतांत्रिक आस्था और कानून व्यवस्था का क्या हश्र होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता।
खैर, करार पर दस्तखत के बाद भी कई मुद्दों पर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। भारत सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि भारत हाइड एक्ट से बंधा हुआ नहीं है। बल्कि भारत तो सिर्फ 123 समझौते से बंधा हुआ है और इसी के तहत आगे बढ़ेगा। जबकि वहीं दूसरी तरफ कोंडलिजा राइस हर तरफ यह बयान दे रही हैं कि भारत पर हाइड एक्ट लागू होगा। इससे साफ है कि भारत ने भविष्य में परमाणु परीक्षण्ा करने का अधिकार खो दिया है। साथ ही यह भी कोशिश थी कि परोक्ष रूप से भारत को परमाणु अप्रसार संधि यानी सीटीबीटी से भी बांधा जाए और इसमें अमेरिका कामयाब रहा है। इससे इतना तो साफ है कि हिंदुस्तान का शीर्ष नेतृत्व इस अहम मसले पर देश की जनता को गुमराह कर रहा है।
बहरहाल, करार की आड़ मे हो रहे खेल को समझने के लिए इसे अंतिम रूप दिए जाने से पहले की गतिविधियों को जानना-समझना जरूरी है। करार को लेकर जब आखिरी दौर की बातचीत चल रही थी और इसका मसौदा अमेरिकी सिनेट में था, उस समय वहां एक अहम घटना घटी। अमेरिकी सीनेट के एक शक्तिशाली पैनल ने एक ऐसे विधेयक को मंजूरी दी जिसमें अमेरिकी कानूनों का उल्लंघन करने की हालत में एनएसजी देशों या अन्य किसी स्रोत से भारत को परमाणु उपकरणों, सामग्रियों या प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण को रोकने का प्रावधान है। इस विधेयक के एक प्रावधान में साफ तौर पर लिखा गया है, ‘परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य भागीदार देशों या किसी अन्य स्रोत से भारत को परमाणु उपकरण सामग्रियों या प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को रोकना अमेरिका की नीति है।’ यहां यह बताते चलें कि इसके जरिए हाइड एक्ट के प्रावधानों को ही और मजबूत बनाया गया है। हाइड एक्ट के तहत जैसे ही अमेरिका भारत पर प्रतिबंधों को थोपेगा वैसे ही वह हर तरफ से भारत को मिलने वाले पफायदों को रोकने के लिए कानूनी तौर पर सक्रिय हो जाएगा।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग करार हाइड एक्ट, अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम और अन्य अमेरिकी कानूनों के अधीन होगा। ऐसे में अगर भारत के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री यह कहकर देश को क्यों भ्रम में रख रहे हैं कि भारत पर हाइड एक्ट नहीं लागू होगा। इसी विधेयक में आगे जाकर इसे और ज्यादा स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि 123 समझौते का हर प्रावधान हाइड एक्ट या परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की कानूनी आवश्यकताओं के अधीन रहेगा। भारतीय सत्ताधीशों के दावे की पोल अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के उस बयान से भी खुल जाती है जिसमें उन्होंने कहा है कि 123 समझौता एक राजनीतिक वचनबध्दता है जो अमेरिका पर कानूनन बाधयकारी नहीं है।
इससे पहले जब करार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में था तो उस वक्त एक पत्र लीक हुआ। यह पत्र अमेरिकी प्रशासन द्वारा वहां की कांग्रेस को लिखा गया था। इस पत्र में कई ऐसे आपत्तिजनक प्रावधान हैं जिनसे अब तक भारतीय खेमा पल्ला झाड़ते रहा है। इस पत्र में उल्लेख किए गए प्रावधानों पर अभी तक भारत सरकार की तरफ से कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया है। पत्र में तीसरे सवाल के जरिए यह पूछा गया कि क्या 123 समझौता हाइड एक्ट से किसी भी मामले में परे है? इसके जवाब में बुश प्रशासन ने कहा कि यह समझौता हाइड एक्ट और परमाणु ऊर्जा अधिनियम से पूरी तरह बंधा हुआ है। इस पत्र के प्रश्न संख्या चार से लेकर नौ तक में यह साफ तौर पर लिखा गया है कि कोई भी संवेदनशील प्रौद्योगिकी भारत को नहीं दी जाएगी। साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि 123 समझौते में संशोधन का कोई प्रस्ताव नहीं है। इसके अलावा भारत सरकार यह कहते रही है कि ईंधन को रिप्रोसेस करने का अधिकार भारत के पास सुरक्षित है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह भारत का स्थाई अधिकार है। पर इस पत्र के सवाल संख्या 26 से 29 के जवाब से यह बात साफ हो जाती है कि इस मोर्चे पर भी भारत सरकार झूठ बोल रही है। पत्र में 123 समझौते के अनुच्छेद ग्यारह और बारह का हवाला देते हुए बताया गया है कि भारत को ईंधन के रिप्रोसेसिंग का अधिकार उसी हालत में हासिल होगा जब वह खुद की लागत पर नया केंद्र स्थापित करे या फिर आईएईए की निगरानी में करे। इसके अलावा भारत परमाणु ईंधन की रिप्रोसेसिंग तब कर पाएगा जब वह अमेरिका द्वारा किए गए समझौते और अमेरिकी दिशानिर्देशों का पालन करेगा।
प्रधानमंत्री अक्सर यह कहते रहे हैं कि भारत अपने असैन्य परमाणु कार्यक्रम और संयंत्रें की निगरानी आईएईए के साथ किए गए समझौते के अनुसार ही करने की अनुमति देगा। समझौते में पफालबैक सेफगार्ड के जरिए इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर किसी कारण से आईएईए निगरानी को सही तरीके से अंजाम देने में असफल रही तो अमेरिका अपनी एजेंसी या अन्य किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्था से निगरानी करवाएगा। 123 समझौते की धारा 10 और 16(3) के तहत मनमोहन सिंह सरकार ने इस अतिरिक्त निगरानी को स्वीकार कर लिया है। चौंकाने वाली बात तो इसकी भाषा से निकलकर सामने आ रही है। समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री समेत दूसरे मंत्री भी बार-बार इससे उलटा बयान दे रहे हैं।
जार्ज बुश ने अपने शासनकाल में इस करार को अमली रूप देकर इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद सत्ता में आने वाले किस रूप में इस करार को देखेंगे और इसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे। अमेरिका के चुनावी माहौल को देखते हुए बराक ओबामा का पलड़ा भारी लगता है। बताते चलें कि जार्ज बुश रिपब्लिकन पार्टी से हैं जबकि बराक ओबामा डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं। दोनों की नीतियों में कई मोर्चे पर पफर्क दिखता है। इसलिए ओबामा के करार समर्थक बयानों के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि उनका रवैया कैसा रहता है।
Saturday, October 11, 2008
करार पर वार की दरकार
Sunday, August 24, 2008
ऊर्जा की खोज में
हिमांशु शेखर
कभी जीवन की बुनियादी आवष्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान को षुमार किया जाता था। जिंदगी गुजारने के लिए आज भी ये बेहद जरूरी हैं। पर बीते कुछ दषकों में बदली वैष्विक परिस्थिति और जीवनषैली ने इस कड़ी में ऊर्जा को भी जोड़ दिया है। आज दुनिया का हर देष इस मसले पर चिंतित है। कोई भी अर्थव्यस्था अपनी विकास की रफ्तार को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा किए बगैर बनाए नहीं रख सकती। अभी भारत में परमाणु करार किए जाने के पीछे भी सत्ता में बैठे लोग और सरकारी महकमा बढ़ती ऊर्जा आवष्यकताओं को पूरा किए जाने का ही तर्क दे रही है। हालांकि, यह एक अलग मसला है जिस परमाणु ऊर्जा के जरिए विकास का ख्वाब देष की सरकार संजो रही है, वह खतरों से खाली नहीं है। एक तो परमाणु ऊर्जा की लागत बहुत ज्यादा होती है वहीं दूसरी तरफ अंतरराश्ट्रीय स्तर पर कई बंदिषें भी इस करार के तहत जुड़ी हुई हैं। पर एक बात तो तय है कि जिस तेजी से भारत की ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं, उस तेजी से इसका उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इस बात को स्वीकारने में भी किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि उपलब्ध संसाधनों और परमाणु ऊर्जा के जरिए भी बात बनने वाली नहीं है। ऐसे में आज वक्त की जरूरत यह है कि वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को तलाषा जाए और बढ़ती जरूरतों की पूर्ति की जाए। दुनिया के कई देषों ने वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है और एक मिसाल कायम किया है।बहरहाल, जब वैकल्पिक ऊर्जा की बात की जाती है तो सबसे पहले जेहन में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे स्रोत उभरते हैं। पर बात केवल इन्हीं से बनने वाली नहीं है। क्योंकि औद्योगिकरण की जिस डगर पर दुनिया चल रही है उस पर सषक्त ढंग से बने रहने के लिए ऊर्जा जरूरतें काफी बढ़ गई हैं। यह ऊर्जा की बढ़ती मांग ही है कि इसने खुद में एक उद्योग का षक्ल अख्तियार कर लिया है। और ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि ऊर्जा का कारोबार में कुछ उसी तरह का उछाल आने वाला है जिस तरह का उछाल अस्सी के दषक में कंप्यूटर के क्षेत्र में, नब्बे के दषक में इंटरनेट के क्षेत्र में और इक्कीसवी सदी के षुरूआती दौर में नैनो तकनीक के क्षेत्र में आया था। खैर, कुछ साल पहले तक दुनिया का तकरीबन हर देष काफी हद तक ऊर्जा के पारंपरिक साधनों पर ही निर्भर था। इसमें कोयला और तेल प्रमुख थे। बिजली के उत्पादन के लिए भी कोयला पर ही निर्भरता ज्यादा थी। ऐसा बताया जा रहा है कि अभी भारत को जितनी ऊर्जा की जरूरत है उससे चालीस हजार मेगावाट कम बिजली की आपूर्ति हो पा रही है। देष में ज्यादातर बिजली का उत्पादन कोयला आधारित तकनीक से होता है। जिससे कार्बन डाइआक्साड का उत्सर्जन भी भारी मात्रा में होता है। जो पर्यावरण की दृश्टि से बेहद खतरनाक है। एक अनुमान के मुताबिक देष में सलाना तकरीबन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान बिजली आपूर्ति व्यवस्था के दुरुस्त नहीं होने और बिजली की चोरी की वजह से होता है। एक जानकार ने कुछ साल पहले अपने अध्ययन के आधार पर यह हिसाब लगाया था कि दुनिया को जितनी सूर्य की रोषनी उपलब्ध है, अगर उसका प्रयोग बिजली बनाने में कर लिया जाए तो अभी जितनी बिजली की खपत दुनिया में है उससे बीस हजार गुना ज्यादा बिजली बनाई जा सकती है। इससे मिलती-जुलती बातें कई और अध्ययनों से उभर कर सामने आई हैं। उपलब्ध गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के प्रयोग को गति दिए जाने की दरकार है। इस मामले में भारत की हालत भी बेहद उत्साहजनक नहीं है। भारत में अभी गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के महज डेढ़ फीसद का ही प्रयोग हो पा रहा है। ऐसे में इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि अगर उपलब्ध संसाधनों का अच्छी तरह दोहन हो तो देष की ऊर्जा की समस्या से पार पाना एक ख्वाब नहीं रह पाएगा बल्कि हकीकत में तब्दील हो जाएगा। पर विडंबना यह है कि इन ऊर्जा स्रोतों और इनके प्रयोग को लेकर आज भी देष का एक बड़ा तबका गाफिल ही है। अभी हालत यह है कि भारत में वैकल्पिक स्रोतों से बनाई जाने वाली बिजली में दो तिहाई हिस्सेदारी तमिलनाडु की ही है। ऐसा इसलिए है कि वहां सरकारी स्तर पर इन ऊर्जा स्रोतों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया गया। देष भर में गैरपारंपरिक स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन के प्रति लोगों को जागरूक बनाए जाने की जरूरत है। बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए कुछ दषक पहले विष्व ने आणविक ऊर्जा के उत्पादन की ओर भी कदम बढ़ाया। लेकिन यह प्रयोग बेहद उत्साहजनक नहीं रहा और मामला फिर वैकल्पिक ऊर्जा की तलाष पर पहुंच गया। वैकल्पिक ऊर्जा के प्रति दुनिया की बढ़ती रूचि के लिए तेल की बढ़ती कीमतें भी जिम्मेवार हैं। इसके अलावा सब को इस बात का अहसास हो गया कि जिस तेजी से तेल की मांग बढ़ रही है उस तेजी से आपूर्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि तेल के भंडार भी सीमित हैं और इसकी एक अलग अंतरराश्ट्रीय सियासत है। इसलिए तेल की कीमतों को चाहते हुए भी काबू में नहीं रखा जा सकता। बतातें चलें कि वैष्विक बाजार में तेल की कीमत अभी एक सौ चालीस डाॅलर प्रति बैरल के करीब है और जानकारों की मानें तो अभी इसके थमने के आसार नहीं दिख रहे हैं। इसके अलावा ऊर्जा के एक अहम स्रोत के रूप में षुमार किए जाने वाले प्राकृतिक गैस की कीमत भी बढ़ते ही जा रही है और कोयला भी महंगाई के इस दौर मंे अपवाद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है कि देर-सबेर न चाहते हुए भी ऊर्जा के नए रास्तांे को तलाषना ही होगा। इसलिए इस दिषा में सोचने-विचारने और कुछ करने की पहल जितना जल्दी हो उतना ही अच्छा होगा। यह सच है कि कोयला आधारित बिजली घर बनाने की तुलना मंे सौर और पवन ऊर्जा पर आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र लगाने मंे खर्च अधिक आता है। पर उत्पादन लागत के मामले में ये संयंत्र कोयला आधारित संयंत्र को मात देने वाले हैं। इसलिए कुल मिलाजुला कर दीर्घकालिक तौर पर ये फायदे का सौदा साबित होने जा रहे हैं। वैष्विक स्तर पर ऊर्जा के बाजार का आकार काफी बड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर के लोग संयुक्त तौर पर अभी पंद्रह टेट्रावाट बिजली की खपत करते हैं। जिसकी कीमत छह ट्रिलीयन डाॅलर है। जो दुनिया की अर्थव्यवस्था का दसवां हिस्सा है। ऊर्जा की यह मांग 2050 तक बढ़कर तीस टेट्रावाट पर पहुंच जाने की उम्मीद जताई जा रही है। उल्लेखनीय है कि एक टेट्रावाट मंे हजार गिगावाट होते हैं और एक गिगावाट कोयले से चलने वाली किसी भी बिजली घर की अधिकतम उत्पादन क्षमता है। ऊर्जा के इस बड़े बाजार पर कब्जा जमाने के लिए दुनिया की कई नामीगिरामी कंपनियों ने इस क्षेत्र मंे भारी-भरकम निवेष भी किया है। इसमंे जनरल इलैक्ट्रिक्स का नाम सबसे अहम है। यह अमेरिका की प्रमुख इंजीनियरिंग कंपनियों मे से एक है। इस कंपनी ने पवन ऊर्जा के व्यवसाय में अपनी तगड़ी मौजूदगी दर्ज करा ली है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में मजबूत षुरूआत की है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन बनाने के मामले में भी यह कंपनी अव्वल है। कंपनी ने इस साल के जून तक ही तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए का टरबाइन बेचा। दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में षुमार किए जाने वाले बीपी और षेल ने भी वैकल्पिक ऊर्जा के बाजार में दखल देने के लिए तैयारी षुरू कर दी है। इसके लिए ये दोनों कंपनियां बाकायदा षोध करवा रही हैं। संयुक्त राश्ट्र की एक रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में होने वाले निवेष की सलाना विकास दर साठ फीसद है। 2006 की तुलना में 2007 में 148 बिलियन डाॅलर का निवेष इस क्षेत्र मेें किया गया। इसमें सबसे ज्यादा पैसा पवन ऊर्जा में लगाया गया। अकेले इस क्षेत्र में 50.2 बिलियन डाॅलर का निवेष हुआ। जबकि तेजी से बढ़ रहा सौर ऊर्जा का क्षेत्र 28.6 बिलियन डाॅलर की पूंजी आकर्शित कर पाया। गौरतलब है कि अंतरराश्ट्रीय स्तर पर सौर ऊर्जा का बाजार 2004 से सलाना 254 फीसद की दर से विकास कर रहा है। जैव ईंधन में होने वाले निवेष में कमी आई है। क्योंकि इसके सुरक्षित होने पर ही प्रष्न चिन्ह लगने लगे हैं। 2007 में जैव ईंधन में महज 2.1 बिलियन का ही निवेष हो पाया। संयुक्त राश्ट्र की इस रपट में अनुमान लगाया गया है कि वैकल्पिक ऊर्जा का बाजार 2012 तक बढ़कर चार सौ पचास बिलियन डाॅलर तक पहुंच जाएगा। जबकि 2020 तक इसके बढ़कर 600 बिलियन डाॅलर के पार पहंुच जाने की संभावना है। कार्बन क्रेडिट की अवधारणा आ जाने से बड़े से बड़े देष और कंपनी के लिए नए राह को अख्तियार करने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचा है। गौरतलब है कि कार्बन क्रेडिट वह व्यवस्था है जिसके तहत प्रदूशण के स्तर के आधार पर हर देष को अंक मिलते हैं। प्रदूशण की मात्रा एक निष्चित सीमा से अधिक होने पर उस देष को जुर्माना भरना पड़ता है या फिर दूसरे देष से कार्बन क्रेडिट खरीदना पड़ता है। जिस देष में हरियाली ज्यादा होगी और प्रदूशण कम होगा, उसे ज्यादा अंक मिलने की व्यवस्था है और उसके पास ज्यादा कार्बन क्रेडिट संचित होता है। जिसे वह दूसरे देष को बेच भी सकता है। इसलिए अब पारंपिक तरीकों को छोड़कर बदली हालत के हिसाब से रास्ते तलाषे जा रहे हैं। वैसे तो ऊर्जा उत्पादन के लिए सबसे सस्ता जरिया अभी भी कोयला ही बना हुआ है। पर कार्बन क्रेडिट की पेंच ने कोयला के प्रयोग को हतोत्साहित करना षुरू कर दिया है। क्योंकि कोयला से भारी मात्रा में कार्बन डाय आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसके निस्तारण के लिए अभी तक कोई सस्ता और सुलभ तरीका नहीं ढूंढा जा सका है। जो तरीके अभी जानकार बता रहे हैं, वे काफी महंगे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा अब प्रदूशण सीधे तौर पर नोटों की गड्डियों से जुड़ गया है। इस वजह से बाजार के बड़े खिलाड़ियों के माथे पर बल पड़ गए हैं। पर यह निष्चय ही पर्यावरण के लिहाज से एक सुखद स्थिति है। क्योंकि इसी बहाने सही ऊर्जा उत्पादन के प्रदूशणकारी माध्यमों पर लगाम तो लग रही है।दुनिया में एक ऐसा तबका भी है कि जो जैव ईंधन को भी वैकल्पिक ऊर्जा के एक स्रोत के तौर पर देखता है। जैव ईंधन के बारे में कुछ साल पहले तक बहुत नफा गिनाए गए थे लेकिन ताजा अध्ययन बताते हैं कि यह नुकसान का सौदा है। अमेरिका में तो वैकल्पिक ऊर्जा का कारोबार किसानों के लिए भी फायदे का सौदा साबित हो रहा है। वहां पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए संयंत्र लगाने के लिए बड़ी कंपनियां किसानों से उनकी जमीन किराए पर ले रही हैं। इसके एवज में जमीन के स्वामी को उसकी जमीन पर लगे संयंत्र से उत्पादन होने वाली बिजली से होने वाली आमदनी का तीन फीसद हिस्सा दिया जा रहा है। जानकारों ने अनुमान लगाया है कि एक हेक्टेयर जमीन देने वाले को हर साल औसतन दस हजार डाॅलर मिलेंगे। जबकि इसी जमीन पर वह मक्के की खेती करता है तो उसे महज तीन सौ डाॅलर की ही आमदनी होगी। यह ऊर्जा के क्षेत्र में बहती बदलाव की बयार ही है कि कोयले से बनने वाले बिजली पर काफी हद तक निर्भर रहने वाला चीन पवन ऊर्जा के उत्पादन के मामले में काफी तेजी से प्रगति कर रहा है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में चीन सलाना 66 फीसद की दर से विकास कर रहा है। सौर ऊर्जा के मामले में भी चीन दूसरे देषों की तुलना में काफी आगे है। सौर प्लेट के निर्माण के मामले में चीन दुनिया भर में अव्वल है। चीन के अधिकांष घरों के छत पर सौर प्लेट लगे हुए हैं। जाहिर है कि इससे वहां के लोगों का बिजली पर होने वाला खर्च बच रहा है। जिसका फायदा आखिरकार चीन की अर्थव्यवस्था को मिल रहा है। पवन ऊर्जा के मामले में स्पेन ने भी दुनिया के लिए एक उदाहरण पेष किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने के लिए वहां की सरकार ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और यह कार्य पूरी तरह से योजना बनाकर किया गया है। अमेरिका में कुल बिजली उत्पादन में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी महज एक फीसद है। पर वहां के नीति निर्माताओं ने 2020 तक इसे बढ़ाकर पंद्रह फीसद तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। इसमें एक खास तरह के पंखे के इस्तेमाल पर अमेरिका के इंजीनियर षोध कर रहे हैं। अलबर्ट बंेज नामक वैज्ञानिक ने बीसवीं सदी की षुरूआत में ही अपने षोध के आधार पर बता दिया था कि पवन ऊर्जा के लिए प्रयुक्त टरबाइन की कार्यकुषलता 59.3 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकती है। अभी जिन टरबाइनों का उपयोग हो रहा है उनकी कार्यकुषलता पचास फीसद तक है और ऐसी अपेक्षा की जा रही है कि आने वाले दिनों में इसमें और ईजाफा होगा। इसकी वजह से पवन ऊर्जा का उत्पादन लागत भी स्वभाविक तौर पर घटा है और इसमें कमी आने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने से पहले अब स्थान का खास तौर पर ध्यान रखा जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि वैसे जगहों पर ही टर्बाइन लगाए जा रहे हैं जहां बिजली उत्पादन के लिए माकूल परिस्थितियां हों। कहना न होगा कि हवा के दबाव का पवन ऊर्जा के उत्पादन में अहम भूमिका है। इसलिए उन्हीं जगहों को चुना जा रहा है जहां वायु का बहाव षक्तिषाली हो। क्योंकि बहाव में औसतन दो किलोमीटर प्रति घंटे का अंतर भी बिजली उत्पादन की क्षमता पर प्रभाव डालने में सक्षम है। वैसे जगहों पर जहां हवा की गति अपेक्षाकृत तेज होती है वहां आमतौर पर लोग नहीं रहते हैं। इस वजह से जहां पवन ऊर्जा का उत्पादन होता है वहां इसकी खपत नहीं होती। इसलिए इसकी आपूर्ति के दौरान बिजली का अच्छा-खासा नुकसान होता है। इस नुकसान को कम से कम करने के लिए भी इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रयासरत हैं और बीते कुछ सालों मेें तो इसे कुछ कम किया भी गया है। जैसे-जैसे इसमें कामयाबी मिलती जाएगी वैसे-वैसे पवन ऊर्जा के प्रति दुनिया भर में रूझान बढ़ता जाएगा। जिसके सकारात्मक परिणाम आने तय हैं।
सूत भी बिजली भी
राजस्थान के जयपुर के पास के कुछ गांवों में चरखा ही बिजली उत्पादन का जरिया बन गया है। महात्मा गांधी ने कभी चरखे को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बताया था। आज गांधी के उसी संदेष को एक बार फिर राजस्थान के कुछ लोगों ने चरखे के जरिए पूरे देष को देने की कोषिष की है। इस चरखे को ई-चरखा का नाम दिया गया है। इसे बनाया है एक गांधीवादी कार्यकर्ता एकंबर नाथ ने। जब इस चरखे को दो घंटे चलाया जाता है तो इससे एक खास प्रकार के बल्ब को आठ घंटे तक जलाने के लिए पर्याप्त बिजली का उत्पादन हो जाता है। यहां यह बताते चलें कि बिजली बनाने के लिए अलग से चरखा नहीं चलाना पड़ता बल्कि सूत कातने के साथ ही यह काम होता रहता है। इस तरह से कहा जाए तो ई-चरखा यहां के लोगों के लिए दोहरे फायदे का औजार बन गया है। सूत कातने से आमदनी तो हो ही रही है साथ ही साथ इससे बनी बिजली से घर का अंधियारा दूर हो रहा है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में चरखा चलाने के काम में महिलाओं की भागीदारी ही ज्यादा है। कई महिलाएं तो ऐसी भी हैं जो बिजली जाने के बाद जरूरत पड़ने पर घर में रोषनी बिखेरने के लिए चरखा चलाने लगती हैं। इस खास चरखे को राजस्थान में एक सरकारी योजना के तहत लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसकी कीमत साढ़े आठ हजार रुपए है। जबकि बिजली बनाने के लिए इसके साथ अलग से एक यंत्र जोड़ना पड़ता है। जिसकी कीमत पंद्रह सौ रुपए है। सरकारी योजना के तहत पचहतर इसे वहां के लोग पचीस फीसद रकम अदा करके खरीद रहे हैं। बाकी रकम किस्तों में अदा करने की व्यवस्था है। इस चरखे को देष भर में बड़े पैमाने पर गांवों में ले जाने की जरूरत है। ताकि ग्रामीण इलाकों में लोगों को स्वरोजगार के साथ-साथ अपनी ऊर्जा जरूरतों का कुछ हिस्सा तो कम से कम उपलब्ध हो सके। वैकल्पिक ऊर्जा की राह अख्तियार करने के मामले में देष के मंदिर भी पीछे नहीं हैं। आंध्र प्रदेष का तिरुमला मंदिर का बड़ा नाम है। यहां हर रोज तकरीबन पांच हजार लोग आते हैं। अब इस मंदिर में खाना और प्रसाद बनाने के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित तकनीक अपनाई जा रही है। इसके अलावा यहां अन्य बिजली की आपूर्ति भी सौर प्लेटों के जरिए ही की जा रही है। इन बदलावों की वजह से यहां से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी आई है। इस मंदिर में सौर ऊर्जा तकनीक की सफलता से प्रेरित होकर राज्य के अन्य मंदिर भी ऐसी तकनीक अपना रहे हंै। गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतांे के प्रयोग को लेकर समाज में अलग-अलग स्थानों पर छोटे-छोटे प्रयोग हो रहे हैं। पर आज वक्त की जरूरत यह है कि इन प्रयोगों को बड़े स्तर पर ले जाया जाए ताकि सही मायने में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति की जा सके। इसके अलावा आज इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि उपलब्ध ऊर्जा के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। दिन में भी जलते रहने वाले स्ट्रीट लाइट और अनावष्यक तौर पर सरकार का महिमामंडन करने वाले विज्ञापन के लिए प्रयोग में लाई जा रही ऊर्जा को भी संरक्षित किए जाने की दरकार है। आजकल दिल्ली में हर तरफ ‘बदल रही है मेरी दिल्ली’ के सरकारी विज्ञापन दिख जाते हैं। रात भर रोषनी से जगमगाने वाले इन विज्ञापनों में अच्छी-खासी बिजली की खपत हो रही है। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर हमें बिजली किस कार्य के लिए चाहिए? अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए या फिर ऐषो-आराम और दिखावे के लिए।
Thursday, August 21, 2008
भारत-अमेरिका परमाणु करार से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें
एनपीटी को परमाणु अप्रसार संधि के नाम से जाना जाता है। इसका मकसद दुनिया भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। पहली जुलाई 1968 से इस समझौते पर हस्ताक्षर होना शुरू हुआ। अभी इस संधि पह हस्ताक्षर कर चुके देशों की संख्या 189 है। जिसमें पांच के पास आणविक हथियार हैं। ये देश हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, प्रफांस, रूस और चीन। सिर्फ चार संप्रभुता संपन्न देश इसके सदस्य नहीं हैं। ये हैं- भारत, इजरायल, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया। एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं दी गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को प्रदर्शित करती है। इस संधि का प्रस्ताव आयरलैंड ने रखा था और सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाला राष्ट्र है फिनलैंड। इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने पहली जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। इस आधार पर ही भारत को यह दर्जा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं प्राप्त है। क्योंकि भारत ने पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था।
सीटीबीटी क्या है?
सीटीबीटी को ही व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि कहा जाता है। यह एक ऐसा समझौता है जिसके जरिए परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित किया गया है। यह संधि 24 सितंबर 1996 को अस्तित्व में आयी। उस वक्त इस पर 71 देशों ने हस्ताक्षर किया था। अब तक इस पर 178 देशों ने दस्तखत कर दिए हैं। भारत और पाकिस्तान ने सीटीबीटी पर अब तक हस्ताक्षर नहीं किया है। इसके तहत परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित करने के साथ यह प्रावधान भी किया गया है कि सदस्य देश अपने नियंत्रण में आने वाले क्षेत्रें में भी परमाणु परीक्षण को नियंत्रित करेंगे।
123 समझौता क्या है?
यह समझौता अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 के तहत किया गया है। इसलिए इसे 123 समझौता कहते हैं। सत्रह अनुच्छेदों के इस समझौते का पूरा नाम है- भारत सरकार और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के बीय नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए सहयोग का समझौता। इसके स्वरूप पर भारत और अमेरिका के बीच एक अगस्त 2007 को सहमति हुई। अमेरिका अब तक तकरीबन पच्चीस देशों के साथ यह समझौता कर चुका है। इस समझौते के दस्तावेज में अमेरिका ने भारत को आणविक हथियार संपन्न देश नहीं माना है, बल्कि इसमें यह कहा गया है कि आणविक अप्रसार संधि के लिए अमेरिका ने भारत को विशेष महत्व दिया है।
हाइड एक्ट क्या है?
हाइड एक्ट का पूरा नाम हेनरी जे हाइड संयुक्त राज्य-भारत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा सहयोग अधिनियम 2006 है। यह अमेरिकी कांग्रेस में एक निजी सदस्य बिल के रूप में पास हुआ है। इसमें भारत और अमेरिका के बीच प्रस्तावित परमाणु समझौते से जुड़े नियम एवं शर्तों को समाहित किया गया है। इस समझौते के लिए जब अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 में संशोधन किया गया तब इसका नाम हाइड एक्ट रख दिया गया।
आईएईए क्या है?
इस संस्था का पूरा नाम इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी है। यह नाभिकीय क्षेत्र में सहयोग का अंतरराष्ट्रीय केंद्र है। इसका गठन 1957 में हुआ था। यह संस्था शांतिपूर्ण और सुरक्षित नाभिकीय प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए काम करती है। इस संस्था का मुख्यालय आस्ट्रिया के विएना में है। अभी इसके महानिदेशक मोहम्मद अलबरदेई हैं। इस संस्था के तीन मुख्य काम हैं- सुरक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी एवं सुरक्षा व संपुष्टि।
45 देशों की एनएसजी क्या है?
एनएसजी का पूरा नाम न्यूक्लियर सर्विस ग्रुप है। इसे ही न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप भी कहा जाता है। इस समय इसके सदस्य देशों की संख्या 45 है। यह ऐसा समूह है जो नाभिकीय सामग्री के निर्यात पर दिशानिर्देश लागू करके नाभिकीय हथियारों के अप्रसार में मदद देता है। इसका गठन 1974 में किया गया था। शुरूआत में इसके सदस्यों की संख्या महज सात थी। उस वक्त भारत ने परमाणु परीक्षण किया था। जिसे उस समय नाभिकीय हथियार वाला देश नहीं कहा जाता था। इसका पहला दिशानिर्देश 1978 में आईएईए के दस्तावेज के रूप में तैयार किया गया था। करार के आगे बढ़ने की स्थिति में नाभिकीय सामग्री प्राप्त करने के लिए भारत को इस समूह के पास जाना पडेग़ा।
ईंधन आपूर्ति की शर्तें क्या हैं?
हाइड एक्ट की धारा 104 और 123 समझौते की धारा 2 देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हाइड एक्ट भारत को नाभिकीय ईंधन मिलने की राह में रोडे अटकाता है। हाइड एक्ट की धारा 104 के मुताबिक परमाणु ऊर्जा अधिनियम की धारा 123 के तहत हुए भारत के सहयोग के बाबत किसी समझौते और इस शीर्षक के उद्देश्य के तहत किसी करार को लागू होने की स्थिति के बावजूद भारत की नाभिकीय या नाभिकीय ऊर्जा से संबध्द सामग्री, उपकरण्ा या प्रौद्योगिकी का भारत को निर्यात रद्द किया जा सकता है। हमें यूरेनियम की आपूर्ति बाजार भाव पर की जाएगी और इसका दाम भी बाजार की ताकतें ही तय करेंगी। बीते कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूरेनियम की कीमत में चार गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है और इसके दाम थमते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में यूरेनियम की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता बना रहना तय है।
परमाणु बिजली घरों से कितनी बिजली बनेगी?
करार समर्थकों का यह दावा कोरा ख्वाब सरीखा ही है कि 2020 तक भारत की नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन की क्षमता बीस हजार मेगावाट हो जाएगी। अभी देश में पंद्रह रिएक्टर काम कर रहे हैं। जिनसे 3300 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। देश में कुल ऊर्जा उत्पादन अभी एक लाख चालीस हजार मेगावाट है। जाहिर है कि इसमें परमाणु ऊर्जा का योगदान बहुत कम है। वैसे, 1400 मेगावाट बिजली के उत्पादन के लिए नए रिएक्टर अभी बन रहे हैं। कुडुनकुलम और चेन्नई के रिएक्टर तैयार होने पर परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली सात हजार मेगावाट पर पहुंच जाएगी। भारत सरकार के तहत ही काम करने वाला आणविक ऊर्जा विभाग कहता आया है कि देश के पास इतना यूरेनियम है कि अगले तीस साल तक दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सके। ऐसे में पहले तो हमें अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। ऐसा होते ही परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य को पाने के करीब हम पहुंच जाएंगे। इसके लिए न तो हमें अमेरिका की दादागीरी को झेलना होगा और न ही परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों की खुशामद करनी होगी। अगर 2020 तक बीस हजार मेगावाट के लक्ष्य को पाना है तो 13000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली की व्यवस्था करनी होगी। ऐसा तब ही संभव है जब अगले बारह सालों में हम चार पफास्ट ब्रीडर रिएक्टर, आठ रिएक्टर 700 मेगावाट के और आयातित रिएक्टरों से छह हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन करें। व्यवहारिक तौर पर ऐसा संभव ही नहीं है, चाहे हम कैसा भी करार कर लें। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी 1990 के मध्य से आणविक ऊर्जा की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत पर अटकी हुई है। दूसरी तरफ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि नाभिकीय बिजलीघरों से बनने वाली बिजली में लागत दुगनी होती है। जिस वजह से यह बेहद महंगी भी है।
क्या अमेरिकी कंपनी को ही ठेका मिलेगा?
अमेरिका का नाभिकीय उद्योग विदेशी आर्डरों के भरोसे ही कायम है। क्योंकि पिछले तीस साल में अमेरिका में कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं लगाया गया है। इसलिए अमेरिका की नजर अब भारत से आने वाले अरबों डालर के आर्डरों की ओर लगी हुई है। 150 अरब डालर के इस समझौते से अमेरिकी कंपनियों का मालामाल होना तय है। अमेरिकी कंपनियों के लिए यह समझौता अपने आर्थिक गतिरोध को तोड़ने के लिए सुनहरा अवसर साबित होने जा रहा है। 16 नवंबर 2006 को अमेरिकी सीनेट ने समझौते को मंजूरी दी। उसी महीने के आखिरी हफ्ते में 250 सदस्यों वाला व्यापारियों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया। उसमें जीई एनर्जी, थोरियम पावर, बीएसएक्स टेक्नोलोजिज और कान्वर डायन जैसी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे। अमेरिकी थैलीशाहों के मकसद का खुलासा उनके पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन के बयान से हो जाता है। उन्होंने कहा है, 'अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के पास भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए लाबिंग की है। अब उसे मालदार सैन्य ठेके चाहिए।' इन ठेकों को पाने के लिए लाकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप गु्रमन, हानीवेल और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां भारत में अपना कार्यालय चला रही हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडलिजा राइस ने कांग्रेस में सापफ-साफ कह भी दिया है कि यह समझौता निजी क्षेत्र को पूरी तरह से दिमाग में रखकर तैयार किया गया है।
परमाणु परीक्षण के बारे में करार में क्या स्थिति हैं?
कोई भी परमाणु परीक्षण बगैर यूरेनियम संवर्धन के हो ही नहीं सकता है। इस समझौते के जरिए भारत के यूरेनियम संवर्धन को प्रतिबंधित किया गया है। हाइड एक्ट के अनुच्छेद 103 में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इस समझौते का मकसद नाभिकीय अप्रसार संधि में शामिल या उससे बाहर के किसी गैर परमाणु शस्त्र संपन्न राज्य द्वारा परमाणु हथियार बनाने की क्षमता विकसित करने का विरोध करना है। इसके अलावा लिखा गया है कि जब तक बहुपक्षीय प्रतिबंध या संधि लागू न हो तब तक भारत को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वह असुरक्षित नाभिकीय स्थानों पर विखंडनीय पदार्थों का उत्पादन न बढ़ाए। हाइड एक्ट में ही इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर भारत कोई परमाणु परीक्षण करता है तो यह समझौता रद्द हो जाएगा और हमें इस करार के तहत प्राप्त सामग्री और प्रौद्योगिकी वापस करनी पड़ेगी।
करार से अमेरिका का हित कैसे सधेगा?
अमेरिका का मकसद अपने हितों को ध्यान में रखते हुए सैन्य प्रभुत्व जमाना है। इसके लिए वह कई सहयोगियों को जोड़कर हर दिशा में सैन्य गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है। इस दिशा में वह भारत को प्रमुख रणनीतिक सहयोगी के तौर पर देखता है। ताईवान, उत्तर कोरिया, मानवाधिकार, लोकतंत्र और एटमी प्रसार के मसले पर अमेरिका और चीन में मतभेद है। इसलिए वह चीन को रोकने के लिए इस इलाके में एक शक्ति संतुलन चाहता है। वह एशिया में नाटो जैसा एक नया संगठन चाहता है। जिसके लिए भारत एक उपयुक्त सैन्य सहयोगी दिखाई पड़ता है। ईरान से युध्द होने की स्थिति में अमेरिका उस पर सैन्य कार्रवाई करने के लिए हिंदुस्तानी सरजमीं का इस्तेमाल करना चाहता है। अमेरिकी कांग्रेस में रखी गई एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले पंद्रह साल के अंदर चीन से उसका एक युध्द संभव है। ऐसा होने पर भारत अमेरिका के लिए चीन पर हमला करने के लिए बेहद उपयुक्त स्थान है।
इस करार के तहत हाइड एक्ट की धारा 109 के जरिए अमेरिका ने यह सुनिश्चित किया है कि परमाणु नि:शस्त्रीकरण के अमेरिकी अभियान में भारत साथ चलने को बाध्य होगा। इस बारे में हर साल अमेरिकी राष्ट्रपति वहां के कांग्रेस में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा, जिसके आधार पर यह तय किया जाएगा कि भारत अमेरिका के मुताबिक काम कर रहा है या नहीं। जाहिर है इससे भारत के निर्णय लेने की क्षमता पर आंच आना तय है।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का क्या इंतजाम है?
हाइड एक्ट प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाता है। साथ ही यह भारत को दोहरे प्रयोग की प्रौद्योगिकी तक पहुंचने से रोकता है। यानी भारत नाभिकीय ईंधन के संपूर्ण चक्र का हकदार नहीं हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति हर साल जो रिपोर्ट वहां की कांग्रेस में रखेंगे, अगर उसमें यह पाया जाता है कि भारत इसका पालन नहीं कर रहा तो वह समझौते को रद्द कर देगा। साथ ही वह अन्य देशों पर भी यह दबाव डालेगा कि वे भारत को एटमी ईंधन और प्रौद्योगिकी की सप्लाई बंद कर दें। हम इस सौदे में पफायदे से ज्याद नुकसान में रहेंगे। भारत को न तो आणविक ईंधन और न ही रिएक्टर कम दाम या मुफ्त में मिलेगा। इसे हमें प्रचलित बाजार मूल्य पर ही खरीदना होगा। जो निश्चय ही स्वदेशी परमाणु शक्ति के दाम को बढ़ा देगा। नाभिकीय तकनीक मिलने का दावा भी खोखला है। एक तो यह बहुत देर से आएगा और दूसरी बात यह कि इसकी मात्र बहुत कम होगी।
करार टूटने पर क्या होगा?
अगर करार टूटता है तो भारत को वो सारी मशीनें, औजार और प्रौद्योगिकी वापस करनी होगी जो इस डील के तहत मिलेगा। इसके अलावा हमारे चौदह परमाणु रिएक्टर पर निगरानी जारी रहेगी। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा करार में किए गए किसी वायदे को तोड़ा जाता है तो ऐसी हालत में क्या होगा, इसका उल्लेख इस समझौते में नहीं किया गया है।
Friday, August 15, 2008
कैसी आजादी, किसकी आजादी
Tuesday, August 12, 2008
जनता का पैसा उड़ाते जनसेवक
एक दौर वह था जब राजनीति को सेवा का जरिया माना जाता था। आजादी के पहले और आजादी के कुछ साल बाद तक सियासत और सेवा एक-दूसरे के पर्याय सरीखे ही थे। सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहने वाले लोग ही राजनीति के रथ पर सवार होते थे और जनसेवा को ही अपने जीवन का अहम मकसद मानते हुए राजकाज में हिस्सा लेते थे। कम से कम खर्चे में चुनाव में विजयी पताका पफहराने को बडे़ सम्मान की निगाह से देखा जाता था। पर अब हालात कापफी बदल गए हैं। जो चीजें कभी राजनीति में अछूत मानी जाती थीं, दुर्भाग्य से आज वही अनिवार्य बना दी गई हैं। चुनाव प्रचार में ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च करना राजनीतिज्ञों के लिए रसूख का मसला बन गया है। उस दौर को बीते बमुश्किल कुछ दशक ही हुए होंगे जब चुनाव प्रचार पैदल, साईकल और खुली जीपों के जरिए होता था। पर अब तो महंगी गाड़ियों के साथ-साथ हेलीकाॅप्टर का भी प्रयोग जनता का वोट पाने के लिए हो रहा है। बिहार जैसे पिछड़े राज्य में सड़कों की बदहाली का हवाला देते हुए हर सियासी दल ने बीते चुनावों में जमकर हेलीकाॅप्टर का प्रयोग प्रचार के लिए किया। व्यवस्था की बदहाली का आलम यह है कि प्रचार से भी अध्कि पैसा चुनाव को मैनेज करने में खर्च होने लगा है।बहरहाल, चुनाव से पहले जनता की सेवा की कसमें खाते हुए कभी नहीं अघाने वाले नेता जब जीत जाते हैं तो सरकारी सुविधओं और पैसे के दुरूपयोग में जरा सा भी कोताही नहीं बरतते। और अगर नेताजी मंत्री बन जाएं तो पिफर क्या कहने! विदेश दौरे के नाम पर मजे-मजे में करोड़ों रुपए उड़ा देना तो इनके लिए बाएं हाथ का खेल बन जाता है। पिछले दिनों प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मंत्रियों को विदेश दौरों में कटौती की सलाह दे डाली। इस पर कुछ मंत्रियों ने तो दिखावे के लिए ही सही अपनी एक-दो विदेश यात्राएं रद्द भी कर दीं। वहीं सियासी हलकों में खुद प्रधानमन्त्री के विदेश दौरे पर होने वालों बेशुमार खर्चों पर कनपफुसकी चलने लगी। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने तो सरकारी खर्च कम करने के मकसद से साईकिल से ही दफ्रतर जाना शुरू कर दिया। यह बात अलग है कि उन्होंने अपने साईकिल सवारी का सियासी लाभ लेने का कोई भी मौका नहीं गंवाया।खैर, जिस प्रधानमन्त्री कार्यालय से मंत्रियों को खर्चे कम करने के लिए विदेश दौरों में कमी लाने की ताकीद की गई है वहीं विराजने वाले प्रधनमंत्रियों के विदेश दौरों पर सोलह मई 1996 से लेकर 2006 तक 371 करोड़ से अधिक पैसा खर्च किया जा चुका है। यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत सामने आई है। इस दौरान सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी रहे। बजाहिर, विदेश दौरों पर होने वाले खर्चों के मामले में भी वे अव्वल हैं। उनके विदेश दौरों पर तकरीबन दौ सौ दस करोड़ रुपए की भारी-भरकम रकम सरकारी खजाने से खर्च की गई। 1997 में प्रधानमन्त्री के विदेश दौरों पर देश की जनता के द्वारा भरे जा रहे टैक्स में से तकरीबन तकरीबन इक्कीस करोड़ रुपए खर्च हुए। उस साल एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल प्रधानमन्त्री थे। अगले साल इस मद में लगभग चौदह करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह खर्चा गुजराल और वाजपेयी ने मिलकर किया। इतना ही पैसा 1999 में वाजपेयी के विदेश दौरों पर खर्च हुआ। 2000 में इस खर्चे को वाजपेयी ने घटाकर साढ़े दस करोड़ तक पहुंचा दिया। पर अगले ही साल यानी 2001 में इसमें जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई और यह बढ़कर अड़तालीस करोड़ पर पहुंच गया। 2002 में यह आंकड़ा पचास करोड़ को पार कर गया। 2003 में वाजपेयी के विदेश दौरों पर तकरीबन बासठ करोड़ रुपए खर्च किए गए। 2004 में सत्ता बदली और नए प्रधनमंत्राी के रूप में मनमोहन सिंह ने बागडोर संभाली। इस साल दोनों प्रधनमंत्रियों के विदेश दौरों का खर्च तकरीबन पच्चीस करोड़ रहा। 2005 में अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के विदेश दौरों पर सरकारी खजाने में से तकरीबन 67 करोड़ और 2006 में लगभग 53 करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह तो केवल प्रधानमन्त्री के विदेश दौरे का लेखा-जोखा है। इसके अलावा प्रधानमन्त्री के घरेलू दौरों पर भी हर साल करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। दूसरे मंत्रियों के विदेश दौरे समेत अन्य खर्चों का हिसाब लगाया जाए तो यह भी अरबों में होगा। घरेलू यात्राओं के लिए मंत्रियों को कापफी सुविधएं दी जाती हैं। मंत्रियों और उनके परिजननों के स्वास्थ्य के देखभाल के नाम पर भी आमजन द्वार चुकाए जा रहे टैक्स में से हर साल करोड़ों रुपया पानी की तरह बहा दिया जा रहा है। कहना ग़लत न होगा कि ये नेता चिकित्सा में हाने वाले खर्चों को वहन करने में पूरी तरह सक्षम हैं, इसके बावजूद इन्हें तमाम सुविधएं दी जा रही हैं। जबकि जिसके वोट की बदौलत ये सत्ता सुख भोग रहे हैं वह स्वास्थ्य सुविधओं के अभाव में दम तोड़ने को अभिशप्त है। पैंतालीस लाख रुपए वाजपेयी के स्वास्थ्य पर ग्यारह अप्रैल 2002 से लेकर चैबीस मार्च 2006 के बीच खर्च हुआ। इसी दरम्यान ना जाने कितने लोग महज कुछ रुपयों के अभाव में बुनियादी चिकित्सा से भी महरूम रहकर काल की गाल में समा गए होंगे। पर यह बात सियासत के सौदागरों के भेजे में नहीं घुसती, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था से पनपे इन सत्ताधिशो के लिए देश का आमजन बस वोट पाने का एक जरिया मात्र बनकर रह गया है।एक समय दलितों के वोट और सहयोग के बूते जगजीवन राम इस वर्ग के बड़े ताकतवर नेता बनकर उभरे थे। जब वे केंद्र में मंत्री थे तो उनकी बेटी एक बार विदेश यात्रा पर गईं। उन्हें वहां का खाना पसंद नहीं आया। यह जानकर दलितों के मसीहा माने जाने वाले जगजीवन राम ने एक विशेष विमान से हिंदुस्तानी रसोईया अपनी बेटी की खिदमत के लिए रवाना किया। इसी से नेताओं का दोहरा रूप उजागर होता है। एक तरपफ तो जगजीवन राम उन दलितों के हमदर्द होने का राग अलापते थे, जो दाने-दाने को मोहताज थे। वहीं दूसरी तरपफ उन्होंने अपनी बेटी के मुंह का जायका बिगड़ने से बचाने के लिए पल भर में सरकारी खजाने से लाखों उड़ाने में जरा भी संकोच नहीं किया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या वह सही मायने में दलितों के हमदर्द थे या पिफर सिपर्फ अपनी सियासत चमकाने के लिए वे खुद को दलितों के मसीहा के रूप में पेश करते थे? अभी कुछ सालों से दलितों की देवी के तौर पर मायावती खुद को पेश करने लगी हैं। पर उनकी कथनी और करनी में भी व्यापक भेद स्पष्ट तौर पर दिखता है। उन्होंने करोड़ों का बंगला बनवाया है। वे कहती हैं कि इस महल के लिए उनके कार्यकर्ताओं ने दस-बीस रुपए करके चंदा दिया है। खैर, बहनजी सरकारी खर्चे पर उत्तर प्रदेश में जगह-जगह पर अपनी मूर्तियाँ भी लगवा रही हैं। बहनजी की सेवा के लिए पहले से ही दो सरकारी विमान थे लेकिन उन्होंने हाल ही में तीसरा विमान जनता के पैसे से खरीद डाला। ताम-झाम के साथ जन्म दिन मनाने के मामले में भी मायावती का कोई जोड़ नहीं है। पर प्रश्न यह है कि दलितों के नाम पर राजनीति करने वाली मायावती आखिर लखनउफ के पंचम तल पर बैठकर उत्तर प्रदेश की बागडोर संभालते ही अपने पुराने दिनों को भुलकर जनता के पैसे को पानी की तरह बहाकर आखिर क्या संदेश दे रही हैं? उनके आचरण से तो यही बात सामने आ रही है कि हाथी के दांत दिखाने के कुछ और खाने के कुछ। मायावती का बचपन झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती में गुजरा है। एक समय ऐसा था जब वे एक-एक पैसे के लिए मोहताज थीं। घर की आर्थिक बदहाली की वजह से वे अपने छोटे भाई का ईलाज कराने के लिए कड़ी धुप में भी पैदल अस्पताल जाया करती थीं। दलितों की उपेक्षा और विपन्नता के सहारे ही उन्होंने अपनी सियासी पारी खेली है। पर यह कैसी विडंबना है कि एक बार सत्ता में आते ही बहनजी अपने पुराने दिनों को भूलकर उन्हीं कारनामों को अंजाम देने में लगी हैं जिन्हें कोसते हुए वे यहां तक पहुंची हैं। सरकारी खजाने से पैसा खर्च करने के मामले में देश के राष्ट्रपति भी पीछे नहीं रहे हैं। जब प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति बनीं तो अमरावती के उनके निजी आवास का नवीनीकरण लाखों रुपए के सरकारी खर्चे से किया गया। इसके अलावा खबर तो यह भी आई कि प्रतिभा ताई जब अमरावती जाएं तो उन्हें किसी तरह की परेशानी नहीं हो इसलिए चार सौ करोड़ रुपए खर्च करके वहां एयरपोर्ट बनाया जाएगा। वैसे जनता का पैसा उड़ाने में पहले के राष्ट्रपति भी पीछे नहीं रहे हैं। नीलम संजीवा रेड्डी ने बतौर राष्ट्रपति जब अपना कार्यकाल पूरा कर लिया तो लाखों रुपए के सरकारी खर्चे पर आंध्र प्रदेश के अनंतपुर के अपने पुश्तैनी निवास को सुसज्जित करवाया था। कुछ समय बाद उन्होंने सरकार से कहा कि मेरा जी यहां नहीं लगता इसलिए मेरे रहने की व्यवस्था बंगलोर में की जाए तो पिफर लाखों खर्च करके उनके लिए व्यवस्था करवाई गई। जब शंकर दयाल शर्मा सेवानिवृत हुए तो उन्होंने भी अपने भोपाल के बंगले को लाखों के सरकारी खर्चे से सुसज्जित करवाया लेकिन खुद के रहने के लिए दिल्ली में भी अलग से व्यवस्था करवाई। कृष्णकांत जब उपराष्ट्रपति बने थे तो कहा जाता है कि उन्होंने लाखों खर्च करके सरकारी आवास में सजावट करवाई। ये वही कृष्णकांत थे जो कभी समाजवादी युवा तुर्क के नाम से मशहूर थे। सजावट पर जनता के धन को उड़ाने वाले मंत्रियों की तो लंबी फेहरिस्त है ही।वहीं दूसरी तरपफ ऐसे उदाहरण भी अपने देश में मौजूद हैं जिन्होंने अपने आचरण से एक अलग मिसाल कायम की। आजादी के पहले महाराष्ट्र और गुजरात एक ही राज्य होते थे। जब वहां के मुख्यमंत्री बीजी खैर बने तो उन्होंने एक उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया। उनका निवास मुंबई के उपनगर खार में था। उन्होंने सरकारी आवास लेने से मना कर दिया और खार से ही लोकल ट्रेन पकड़कर रोज चर्चगेट जाते थे। जहां से पांच मिनट पैदल चलने के बाद वे सचिवालय पहुंचते थे। वे कार का उपयोग केवल सरकारी काम के लिए ही किया करते थे। ऐसा ही उदाहरण 1977 में देश के प्रधनमंत्राी बने मोरारजी देसाई ने भी पेश किया था। चार्टर्ड विमान उपलब्ध् होने के बावजूद वे इसका इस्तेमाल यदा-कदा ही किया करते थे। आमतौर पर वे अपनी यात्राएं यात्री विमान से ही किया करते थे। आज जरूरत इस बात की ही देश के कर्णधर अपने आचरण से ऐसे ही उदाहरण पेश करें ताकि सियासतदानों और सियासत के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी लोगों का भरोसा कायम रह सके।
Monday, August 11, 2008
बीजिंग ओलंपिक में भारत
हिमांशु शेखर
जब तक आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तब तक चीन की राजधानी बीजिंग में खेलों का महासमर यानि ओलंपिक का रोमांच अपने चरम पर होगा। हर देश के खिलाड़ी इस महासंग्राम में पदक के लिए जोर आजमाइश कर रहे होंगे। पर अपने देश के खेलों के लिए यह ओलंपिक खुशियों की बहार लेकर आएगा, ऐसा उम्मीद करना किसी ज्यादती से कम नहीं होगा। क्योंकि भारत की तरफ से जो 57 खिलाड़ी ओलंपिक में नुमाइंदगी करने गए हैं, उनकी हालत से हम सभी वाकिफ हैं। यहां यह मकसद कतई नहीं है कि ओलंपिक में होने वाली बदहाली के लिए खिलाड़ियों को कसूरवार ठहराया जाए। सही मायने में अगर कहा जाए तो देश में खेलों की बदहाली के लिए खेल प्रशासक काफी हद तक जिम्मेवार हैं।
मिसाल के तौर पर हम हॉकी को ही लें। यह पहली दफा है कि भारत की हॉकी टीम ओलंपिक के मैदान में अपना जौहर दिखाने नहीं उतरेगी। उस दौर को बीते ज्यादा वक्त नहीं हुआ है जब भारत हॉकी का सरताज हुआ करता था और दुनिया की कोई भी टीम भारत के सामने टिक नहीं पाती थी। सनर के दशक तक ओलंपिक में भारत का मतलब स्वर्ण पदक होता था। पर अब यह एक ख्वाब सरीखा ही लगता है। यह मानने वालों की कमी नहीं है कि हॉकी की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार भारतीय हॉकी महासंघ रहा है। यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं है कि हॉकी महासंघ के बंटाधार में सियासी दखलंदाजी ने अहम भूमिका निभाई है। केपीएस गिल ने चौदह साल तक भारतीय हॉकी महासंघ को चलाया। या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने देश की हॉकी पर शासन किया। शासन इसलिए कि इस दौरान हॉकी रसातल में पहुंचा दी गई। साथ ही गिल के शासनकाल में हॉकी गलत वजहों से ही सुर्खियों में आया। इस दौरान जब-जब ऐसा लगा कि हॉकी में सुधार हो रहा है तब-तब गिल ने चाबुक से इसे नियंत्रित करने के फेर में बर्बादी के कगार पर पहुंचाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई।
हॉकी में असलम शेर खान का नाम जाना-पहचाना है। वे भारत के ऐतिहासिक विजयों में भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं और विजय पताका लहराने में उन्होंने अहम भूमिका भी निभाई है। बीते दिनों उन्होंने दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में मंच से यह कहा कि देश के खेल संघ नेताओं के लिए अय्याशी का अड्डा बनकर रह गए हैं, जिसे वे अपने अहं की तुष्टि के लिए अपने हिसाब से चलाते हैं। इस बयान से यह साफ है कि खेल संगठनों पर काबिज लोगों के लिए खेल की भलाई अहम मकसद नहीं है। असलम शेर खान ने बगैर किसी लागलपेट के कहा कि केपीएस गिल के शासन काल को भारतीय हॉकी का काला इतिहास वाला खंड कहने में किसी को कोई संकोच नहीं करना चाहिए। केपीएस गिल के तानाशाही रवैए को याद करते हुए उन्होंने 2002-03 की घटनाओं की याद दिलाई। असलम शेर खान ने कहा, '2002-03 में हॉकी की टीम ने जीतना शुरू किया। लगातार कुछ प्रतियोगिताओं में टीम को सफलता मिली। मीडिया ने भी मदद करना शुरू किया। कुछ खिलाड़ी आइकॉन बनकर उभरने लगे। पर यह सब उस वक्त के हॉकी के कर्ताधर्ता को मंजूर नहीं था। इसलिए खिलाड़ियों को मीडिया से बात करने पर पाबंदी लगाई गई और दूसरी तरफ मीडिया तक कम से कम बात पहुंचे, इस बात का भी बंदोबस्त किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हॉकी के उत्थान का राह अवरूध्द हो गया।'
यहां यह बताना जरूरी है कि असलम शेर खान जब यह बोल रहे थे तो उस वक्त तक वे भारतीय हॉकी टीम की चयन समिति के अमयक्ष थे। पर दो दिन बाद ही उनसे यह पद छीन लिया गया। मीडिया में सूत्रों की जानकारी के आधार पर जो खबरें प्रकाशित हुईं उसमें यह बताया गया कि असलम शेर खान इस तरह का बयान मीडिया में दे रहे थे जो इस खेल के आकाओं को नागवार गुजर रहा था। इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अपने देश में स्थापित व्यवस्था के खिलाफ सच बोलना आज भी खतरों को आमंत्रण देने जैसा ही है। बहरहाल, यह हॉकी पर हावी सियासत ही थी जिसने धनराज पिल्लै जैसे खिलाड़ी के कैरियर को असमय ही काल के गाल में समा जाने को अभिशप्त कर दिया। इस खेल के आकाओं ने ऐसे ही ना जाने कितने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के खेल से देश को महरूम कर दिया और इन खिलाड़ियों को गुमनामी की जिंदगी गुजारने को मजबूर कर दिया। हॉकी में व्याप्त भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खिलाड़ियों के चयन का पैमाना उनकी काबलियत नहीं बल्कि चयनकर्ताओं को रिश्वत में दिया जाने वाला नोटों का बंडल बन जाता है। पिछले दिनों एक समाचार चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए इसे पूरे देश को दिखाया। जिसमें ज्योतिकुमारन को पैसा लेते हुए सबने देखा। इस शर्मनाक घटना के बाद तात्कालिक तौर पर दिखी हलचल असलम शेर खान की बर्खास्तगी के बाद थमती नजर आ रही है।
खैर, इस बात का अंदाज भारतीय ओलंपिक संघ के अमयक्ष सुरेश कलमाड़ी के बयान से ही लग जाता है कि ओलंपिक में भारत किन उम्मीदों के साथ गया। उनका बयान खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के बजाए हतोत्साहित करने वाला ही था। कलमाड़ी महोदय ने फरमाया कि भारतीय दल से बीजिंग में कोई चमत्कार की उम्मीद नहीं है। अब अगर ओलंपिक संघ का अमयक्ष ही ऐसा बोले तो खिलाड़ियों के आत्मविश्वास की क्या दुर्दशा होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। परंपरा के मुताबिक इस बार भी ऐसा होना तय है कि ओलंपिक में हासिल निराशा के बाद हर खेल महासंघ यह बयान देना शुरू कर देगा कि अगले ओलंपिक की तैयारी वह जोरशोर से करने जा रहे हैं। पर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर चार साल में एक मर्तबा आयोजित होने वाले ओलंपिक में दुबारा नतीजा ढाक के तीन पात वाला नहीं निकले।
आजादी के बाद हॉकी के अलावा अन्य खेलों में भारत को अब तक महज चार ओलंपिक पदक ही मिल पाए हैं। 1956 में केडी जाधव ने मुक्केबाजी में पदक जीता था। इसके बाद भारत के खाते में चालीस साल तक पदकों का सूखा पड़ा रहा। इस सूखे को समाप्त किया 1996 में लिएंडर पेस ने। इसके बाद 2000 में कर्नम मल्लेश्वरी ने भारोनोलन में पदक जीतकर ओलंपिक से भारतीय दल को खाली हाथ लौटने से बचाया। 2004 में निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौर का निशाना सही जगह पर लगा और इसका नतीजा रजत पदक के रूप में सामने आया। यह भी एक अजब विडंबना है कि एक अरब से ज्यादा की आबादी वाला यह देश ओलंपिक में एक पदक को मोहताज है। हालांकि, पदक जीतने में आबादी को कोई तार्किक आधार नहीं माना जा सकता है लेकिन इसके सहारे कम से कम समस्या के स्वरूप को तो समझा ही जा सकता है।
दरअसल, यह समस्या बुनियादी है और खेलों के विकास के लिए आवश्यक ढांचा उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा उपयुक्त माहौल को टोटा भी अपने देश में है। इसका असर खेल के मैदान में दिखना सहज भी है और स्वभाविक भी। इन सबके बावजूद ओलंपिक में पदक नहीं जीतने का मतलब यह नहीं है कि इस देश में विजेता तैयार नहीं हो सकते हैं। अपने देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। कमी है तो अंतरराष्टंीय सुविधाओं और खेल के अनुरूप माहौल की। प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षकों के अभाव से तकरीबन हर खेल को दो-चार होना पड़ रहा है। भारत में यह पता लगाने के लिए अब तक तकनीकी व्यवस्था नहीं हो पाई है जिससे पता चल सके कि कौन खिलाड़ी किस प्रतिस्पर्धा के लायक है। इसके अभाव में अक्सर होता यह है कि गलत खिलाड़ी को बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में भेज दिया जाता है और सही खिलाड़ी घर पर बैठा ही रह जाता है। प्रशिक्षण के ढांचे का कमजोर होना भी खेल और खिलाड़ियों के बुरी गत के लिए काफी हद तक जिम्मेवार है। मौजूदा दौर में खेलों का विकास काफी हद तक पैसे पर भी निर्भर हो गया है। इस लिहाज जब तक खेल में पैसा नहीं लगाया जाएगा तब तक अच्छे परिणाम की उम्मीद बेमानी ही साबित होगी। इन चीजों का असर यह होता है कि खिलाड़ियों में अपेक्षित आत्मविश्वास ही नहीं पैदा हो पाता है।
इन मुश्किलों को झेलते हुए बीजिंग गए भारतीय दल से बहुत ज्यादा उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। इसके बावजूद निशानेबाजी में भारत की संभावनाएं ठीक दिख रही हैं। विश्व रैंकिंग में उनकी मजबूत स्थिति यह साबित कर रही है कि पदक की दौड़ में वे शामिल हैं। समरेश जंग ने बीते कुछ दिनों में निशानेबाजी की दुनिया में अच्छा-खासा नाम कमाया है। उन्होंने राष्टंमंडल खेलों में अपना जलवा जमकर बिखेरा था। उनसे ओलंपिक में भी अपना जादू बिखेरने की आस लगाना गलत नहीं होगा। टैंप निशानेबाजी में मानवजीत संधु का दावा भी कमजोर नहीं है। इसके अलावा अंजलि भागवत, अवनीत कौर, गगन नारंग और संजीव राजपूत से भी उम्मीद की जा सकती है। मुक्केबाजों के पिछले दिनों के रिकार्ड को देखते हुए उनसे भी कुछ उम्मीद की जा सकती है। सबसे ज्यादा उम्मीद है हॉकी के डबल्स मुकाबले में। क्योंकि यहां भारत की नुमाइंदगी पूरी दुनिया में अपना जलवा बिखेर चुकी लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी करेगी। विंबलडन में विजय पताका लहराने के साथ-साथ इस जोड़ी ने कई ग्रैंड स्लैम अपने नाम किए हैं। आपसी मतभेदों के चलते यह जोड़ी बनती-बिगड़ती रही है। इस दफा राष्टं के लिए दोनों धुरंधरों ने एक साथ खेलने का फैसला किया है। अब देखने वाली बात यह होगी कि इस जोड़ी की मेहनत क्या गुल खिलाती है। बहरहाल, देश में खेल संस्कृति पैदा करने और वैश्विक स्तर पर खेलों की दुनिया में भारत को स्थापित करने के लिए आज जरूरत इस बात की है खेल और सियासत को अलग-अलग किया जाए और बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाया जाए। स्कूल के स्तर पर ही प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को तलाशने और फिर उन्हें तराशने की प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाना भी बेहद जरूरी है।
Wednesday, July 23, 2008
Deal can not be Justfied by Trust Vote
Congress lead United Progressive Alliance (UPA) government has won the trust vote in Parliament. Now, Prime Minister Dr. Manmohan Singh will definitely go to much hyped nuclear deal with America. American President Mr. George Bush must be happy with the mandate of Indian Parliament because before leaving the White House he will sign the Indo-US nuclear deal. Infact on political level both major party Congress and BJP is in favour of this nuclear deal. Leader of opposition Mr. L.K. Advani said in parliament that he is not opposing the deal but he think that India should not be ‘junior partner’ of US in this deal. It means most of politicians are in favour of deal. But, Now we the people of India should discuss the importance and structure of this much hyped deal.
First of all we should know what exactly the Indo-US deal is? This deal will allow the United States to sell civilian nuclear technology to India and this is based on the Section 123 of the Atomic Energy Act of 1954. It lets the US make a one-time exception for India to keep its nuclear weapons without signing the Nuclear Non-Proliferation Treaty (NPT). America has made amendment in section 123 for the deal. The amendment overturns a 30-year-old US ban on supplying India with nuclear fuel and technology, implemented after India's first nuclear test in 1974.
Under the amendment, India must separate its civilian and military nuclear facilities, and submit civilian facilities to inspections by the International Atomic Energy Agency (IAEA). India says 14 of its 22 nuclear facilities are civilian and these will come under inspectin of IAEA after the deal.
US President George Bush calls the deal necessary to reflect the countries' improved relations. It strengthens international security by tightening US ties to ally India, the world's biggest democracy. It also ensures some of its nuclear industry will undergo international inspection. Manmohan Singh says India relies on imported oil for some 70 per cent of its energy needs. So, nuclear power will help feed our rapidly expanding economy. But, the fact is far away from these statements.
During the discussion on this deal we often hear about Hyde act. Before going in depth of the deal we must know about Hyde act. Full form of this act is Henry J. Hyde U.S.-India Peaceful Atomic Energy Cooperation Act of 2006.The section 123 of Atomic Energy Act of 1954 is named as Hyde act after amendment. Terms and conditions of this act is not in interest of India. It is very clear in this act is India will not be permitted to join as a technology developer but as a recipient state. India asked to participate in the international effort on nuclear non-proliferation, with a policy congruent to that of United States.
The Hyde Act envisages (Section-109) India to jointly participate with the U.S. in a programme involving the U.S. National Nuclear Security Administration to further nuclear non-proliferation goals. This goes much beyond the IAEA norms and has been unilaterally introduced apparently without the knowledge of the Indian government. In addition, the U.S. President is required to annually report to the congress whether India is fully and actively participating in U.S. and international efforts to dissuade, isolate and if necessary sanction and contain Iran for its pursuit of indigenous efforts to develop nuclear capabilities. These stipulations in the Act and others pertaining to the Proliferation Security Initiative (PSI) constitute intrusion into India's independent decision making and policy matters.
This act badly affects our right to conduct future nuclear weapon tests, if these are found necessary to strengthen our minimum deterrence. In this regard, the Act makes it explicit that if India conducts such tests, the nuclear cooperation will be terminated and we will be required to return all equipment and materials we might have received under this deal. It means, any future nuclear test will automatically result in a heavy economic loss to the country because of the inability to continue the operation of all such imported reactors.
Unfortunately, the Act is totally silent on the U.S. working with India to move towards universal nuclear disarmament, but it eloquently covers all aspects of non-proliferation controls of U.S. priority, into which they want to draw India into committing. Once this Act is signed into law, all further bilateral agreements with the U.S. will be required to be consistent with this law.
The Hyde Act prescribes that before any deal as per section 123 of the US Atomic Energy Act for nuclear cooperation with India (which is not a party to the Nuclear Non-Proliferation Treaty) can be operative. The President must submit to the US Congress for its approval a report affirming in categorical terms, along with supporting documentation, that the following actions have occurred:
(1) India has provided the United States and the IAEA with a credible plan to separate civil and military nuclear facilities, materials, and programmes, and has filed a declaration regarding its civil facilities and materials with the IAEA.
(2) India and the IAEA have concluded all legal steps for the application of IAEA safeguards in perpetuity in accordance with IAEA standards, principles, and practices to India’s civil nuclear facilities, materials, and programmes as declared in the plan, including materials used in or produced through the use of India’s civil nuclear facilities.
(3) India and the IAEA have concluded an Additional Protocol consistent with IAEA principles, practices and policies that would apply to India’s civil nuclear programme.
(4) India is working actively with the United States for the early conclusion of a multilateral treaty on the cessation of the production of fissile materials for use in nuclear weapons or other nuclear explosive devices.
(5) India is working with and supporting the United States and international efforts to prevent the spread of enrichment and reprocessing technology to any state that does not already possess full-scale, functioning enrichment or reprocessing plants.
(6) India is taking the necessary steps to secure nuclear and other sensitive materials and technology, including through:
(a) the enactment and effective enforcement of comprehensive export control legislation and regulations.
(b) harmonisation of its export control laws, regulations, policies, and practices with the guidelines and practices of the Missile Technology Control Regime (MTCR) and the NSG.
(c) adherence to the MTCR and the NSG, in accordance with the procedures of those regimes for unilateral adherence.
(7) The NSG has decided by consensus to permit supply to India of nuclear items covered by the guidelines of the NSG.
The US President is also mandated to furnish to the US Congress a description of the steps taken to ensure that the proposed US civil nuclear cooperation with India will not in any way assist India’s nuclear weapons programme and to secure India’s full and active participation in US efforts to dissuade, isolate, and, if necessary, sanction and contain, Iran for its efforts to acquire weapons of mass destruction, including a nuclear weapons capability and the capability to enrich uranium or reprocess nuclear fuel, and the means to deliver weapons of mass destruction.
The Act also requires the US President to submit annually to the US Congress reports containing an analysis as to whether imported uranium has affected the rate of production in India of nuclear explosive devices.
It should, additionally, provide an estimate of the amount of uranium mined and milled in India during the previous year, the amount used or allocated for the production of nuclear explosive devices and the rate of production in India of fissile material for nuclear explosive devices.
Also required to be submitted is an analysis of whether US civil nuclear cooperation with India is in any way assisting India’s nuclear weapons programme through the use of any US equipment, technology, or nuclear material by India in an un-safeguarded nuclear facility or nuclear-weapons related complex or in any other manner.
Each one of these provisions is intrusive in character violative of its sovereignty. They will subject India to constant pestering for data and information and visits of inspection teams from the US to make sure that the conditions imposed by the US Congress through the Hyde Act are duly complied with by India in the day-to-day implementation of the agreement.
UPA government is telling the nation and Parliament that there is no bar to India conducting a nuclear test in the future. Accordig to Section 106 of the Hyde Act, all commitments and concessions that may be agreed upon as part of the civilian nuclear cooperation “shall cease to be effective if the President determines that India has detonated a nuclear explosive device...”
There should be absolutely no doubt in any quarters that once India conducts a test at any time in the future, the Hyde Act will simply put a stop to all further implementation of the Agreement, and if the US Administration ignores the categorical injunction, it will fall foul of the Congress and the law. In short, in the event of a test, the Agreement will stand automatically terminated with no need for notice or consultations. So, the deal can not be justified by trust vote of parliament.
Government is saying that deal is required for “Energy Security” of the nation but this is false verbatim. If you want to know how then must read next article of this special series on Nuke Deal.
Wednesday, June 18, 2008
रोजी और रोटी
रोजगार के नाम पर छलावा
हिमांशु शेखर
रोजी और रोटी के लिए इंसान का संघर्ष काफी पुराना है। इसके खातिर लोग किसी भी हद को पार करने से नहीं हिचकते हैं। इतिहास गवाह है कि पेट की आग ने ही कई संघर्षों को जन्म दिया है। मौजूदा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वैश्विक स्तर पर रोजगार एक अहम मुद्दा बन गया है। विश्व के ज्यादातर देश आज बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। विकासशील देशों में तो हालत और भी बुरी है। भारत में भी यह समस्या दिनोंदिन गहराती ही जा रही है। हालांकि, आजादी के बाद इस देश में बेरोजगारी को दूर करने के नाम पर कई योजनाएं बनीं, लेकिन नतीजा 'ढाक के तीन पात' वाला ही रहा। ऐसे में 2004 में सत्ता में आई यूपीए (संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन) ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, 2005 देश के दो सौ जिलों में लागू की। उस वक्त इस महत्वाकांक्षी योजना को लेकर काफी लंबे-चौड़े वायदे किए गए। पर पिछले कुछ महीनों से इस तरह के कई मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे यह पता चल रहा है कि इस योजना में भी भ्रष्टाचार का घुन लग चुका है और अफसरशाही ने तो जैसे इसे असफल बनाने की ही ठान ली है। वैसे, अब इसे देश के हर जिले में लागू करने का सरकारी फरमान जारी हो चुका है और ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में यह योजना जमीनी स्तर पर भी देश के हर जिले तक पहुंच जाएगी। बहरहाल, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजी पाने वालों की अब तक की डगर काफी कठिन रही है। ऐसे में इस योजना की उपयोगिता से जुड़े कई सवाल उठने लगे हैं। वह तबका जो शुरूआत से ही इस योजना का विरोध करता रहा है अब और मुखर हो गया है। इसका मानना है कि यह योजना भी भ्रष्टाचार और अफसरशाही की शिकार हो गई है। इसलिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। वैसे इस तबके के अपने स्वार्थ हैं और इनकी प्राथमिकता में आम लोग नहीं हैं, लेकिन रोजगार गारंटी योजना के बंटाधार को लेकर किसी को भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हर राज्य में इस योजना को असफल बनाने के लिए कुछ लोग सक्रिय हैं। राज्यों की रैकिंग में बिहार आखिरी पायदान पर है और इस प्रांत की बदतर जमीनी हालत भी किसी से छुपी हुई नहीं है। ऐसे में इस राज्य के लिए रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं का महत्व काफी बढ़ जाता है। इस राज्य में यह योजना 2005 में हुए चुनावों की वजह से थोड़ी देर से शुरू हुई। शुरुआत में केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार को इस योजना के तहत 1,159 करोड़ रुपए जारी किए गए थे। इतनी भारी-भरकम रकम मिलने के बावजूद बिहार में इस योजना को सफलतापूर्वक धरातल पर नहीं उतारा जा सका। यह बात कुछ हालिया अध्ययनों से भी साबित हो जाती है। बीते दिनों अमन ट्रस्ट नामक एक गैरसरकारी संस्था ने जहानाबाद और अरवल जिले में एक सर्वेक्षण किया। निष्कर्षों के मुताबिक रोजगार गारंटी योजना के तहत बनने वाले ज्यादातर जाब कार्ड अपूर्ण हैं। कई कार्डों पर या तो फोटो नहीं है और कई पर तो किसी अधिकारी के हस्ताक्षर भी नहीं हैं। इस अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि पूर्ण जॉब कार्ड बनवाने के लिए लोगों से घूस लिया जा रहा है। महिलाओं को जॉब कार्ड बनवाने के लिए तो और भी मशक्कत करनी पड़ रही है। यही हाल राज्य के दूसरे जिलों का भी है। औरंगाबाद में तो राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना की हालत और भी बदतर है। सबसे बड़ी बात कि यहां के लोगों को इस योजना के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। देहात के लोग रोजगार गारंटी योजना का नाम सुनते ही पलट कर सवाल करते हैं कि ये क्या है? खैर, यह भी एक बड़ी विडंबना है कि राज्य सरकार अब तक इस योजना के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के नाम पर अरबों रुपए खर्च कर चुकी है। 2006 के अप्रैल में बिहार सरकार ने जनता तक योजना की जानकारी पहुंचाने के नाम पर चार सौ करोड़ रुपए खर्च किए थे और उसी साल के नवंबर माह में भी इसी मद में तकरीबन इतना ही पैसा खर्च किया गया था। इसके बावजूद आम लोगों के पास सामान्य जानकारियां नहीं हैं। ऐसा संभव है कि यह पैसा सिर्फ कागज पर ही खर्च दिखाया गया हो। ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों और स्थानीय सरकारी मुलाजिम जमकर चक्कलस काट रहे हैं। दरअसल, इस योजना में धांधली के कई तरकीबें घपलेबाजों ने ईजाद कर ली हैं। जाली जाब कार्ड बनवाकर भुगतान लेना सबसे आसान तरीका बन गया है। इसके अलावा मस्टर रोल में हेर-फेर भी बडे पैमाने पर किया जा रहा है और कई स्थानों से तो खबरें यहां तक आई हैं कि इस योजना के तहत होने वाले कार्य जमीन की बजाए सिर्फ कागजों पर ही हुए। इस योजना के तहत काम आबंटित करने के वक्त जरूरतमंद पर पसंद को वरीयता दी जा रही है। इस वजह से यह कहा जा सकता है कि योजना अपने बुनियादी उद्देश्यों से भटकती जा रही है और सत्ता चलाने वालों में यह खुशफहमी बढ़ती जा रही है कि इस योजना के मार्फत गांवों में खुशहाली आ रही है।
Tuesday, April 1, 2008
अभी भी संघर्ष जारी है
कहने के लिए तो बच्चों को देश के भविष्य का तमगा दिया गया है। पर हकीकत यह है कि इस देश में मासूम उपेक्षित ही रहे हैं। उपेक्षा की मार झेल रहे इन बच्चों की दुर्दशा के लिए निश्चित तौर पर मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार है। पर अहम सवाल यह है कि अगर व्यवस्था का रोना रोते हुए हर कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहे तो सामाजिक बदलाव एक गुलाबी सपना से अधक कुछ भी नहीं साबित होगा। अगर वाकई देशवासी व्यवस्था में बदलाव को आतुर हैं तो उन्हें अपने-अपने स्तर पर पहल करनी होगी। नए-नए प्रयोग करने होंगे। प्रयोग जब होगा तब ही उसकी सफलता की संभावना भी बनेगी। अगर प्रयोग करने से पहले ही उसके सफलता-असफलता के कयास लगाने लगे तब तो हो गया बदलाव। इस मामले में भी लोगों के लिए कैलाश सत्यार्थी प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र में ही एक प्रयोग किया था। जिसने देखते ही देखते राई से पहाड़ का रूप धारण कर लिया।
उस प्रयोग को याद करते हुए कैलाश सत्यार्थी की आंखों में चमक आ जाती है। खुशमिजाज कैलाश बालकवत् सरलता से जब बोलना शुरू करते हैं तो ऐसा लगने लगता है जैसे सारा दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठा। वे कहते हैं, 'ग्यारह साल की उम्र रही होगी। छठी का परीक्षा परिणाम आने वाला था। मुझे यह पीड़ा बुरी तरह सता रही थी कि कई गरीब बच्चे सिर्फ किताब नहीं होने की वजह से पढ़ाई छोड़ रहे हैं। सो, मैंने अपने मित्र के साथ मिलकर एक ठेला किराए पर लिया। तीस अप्रैल को परीक्षा परिणाम आना था। उसी दिन ठेला लगाया और उस पर चढ़कर मैं बोलने लगा-बधाई, बधाई। आपके बच्चे पास कर गए हैं इसलिए बधाई। देखते-देखते भीड़ जुटने लगी और मेरा हौसला बढ़ने लगा। फिर मैंने कहना शुरू किया कि आज के बाद कई बच्चे स्कूल नहीं आएंगे। क्योंकि कई परिवारों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे नई किताब खरीद सकें। पर अगर आप चाहें तो उनकी पढ़ाई जारी रह सकती है। लोगों की जिज्ञासा बढ़ी और मेरा बोलना जारी रहा। मैंने कहा कि आपके घर में जो भी पुरानी किताब हैं उसे हमारे ठेले में डाल दें। जो बच्चे किताब नहीं खरीद सकते, उन्हें हम उनकी जरूरत की पुस्तकें साल भर के लिए पढ़ने को देंगे।' इसके बाद तो देखते ही देखते कैलाश सत्यार्थी का वह ठेला दिन भर में दो बार भरा। पहले ही दिन तकरीबन दो हजार किताबें जमा हो गईं। छठी कक्षा में पढ़ने वाले कैलाश के पास बीए और एमए तक की किताबें एकत्रित हो गईं। इन किताबों की समझ नहीं होने की वजह से उन्हें जानकार लोगों का सहयोग लेना पड़ा।
किसी ने ठीक ही कहा है कि जब इरादे नेक हों और रास्ता पाक हो तो कितना भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। हजारों किताबें जमा हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी विदिशा के कुछ स्कूलों के प्रधानाचार्यों से मिले। सब ने उस ग्यारह साल के मासूम के फौलादी इरादों का साथ दिया और विदिशा में पुस्तकों का एक ऐसा भंडार तैयार हो गया, जिसने कई विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने के संकट से उबारा। अभी भी यह पुस्तकालय वहां चल रहा है और जरूरतमंद इसका लाभ उठा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां विद्यार्थियों को पुस्तकें साल भर के लिए ही दी जाती हैं ताकि अगले साल उन किताबों से किसी और के अज्ञान का अंधोरा मिट सके। कैलाश सत्यार्थी के इस प्रयोग को छोटे-छोटे स्तर पर किए जाने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से अज्ञान का अंfधयारा मिटाने में काफी मदद मिलेगी और संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।
कैलाश सत्यार्थी जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। छात्र आंदोलन में सत्यार्थी की सक्रिय भागीदारी रही। इसी दरम्यान 1978 में उनकी शादी हो गई। जयप्रकाश आंदोलन के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'राजनीति में आने का भारी दबाव था। शरद यादव जैसे मेरे कई मित्र जनता पार्टी की टिकट पर विजय पताका फहरा चुके थे। उस चुनाव के वक्त मेरी उम्र महज 23 साल थी। अगर मैं 25 का होता तो मुझे जबर्दस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता।' यह पूछे जाने पर कि 25 के बाद राजनीति में क्यों नहीं गए? क्या टिकट मिलते वक्त उम्र कम होने का बाद में अफसोस नहीं हुआ? पहले तो कैलाश सत्यार्थी जोर का ठहाका लगाते हैं और फिर संजीदगी के साथ बोलते हैं, 'उस वक्त तक मैंने र्धामयुग, दिनमान के साथ-साथ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था। अपने कई लेखों और वक्तव्यों में मैंने साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि राजनीति के जरिए सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समाजनीति के जरिए समाज में बदलाव आता है। जनता की उपेक्षा करके नहीं बल्कि जनता को साथ लेकर ही राज और समाज में सकारात्मक बदलाव होगा।' राजनीति से कैलाश सत्यार्थी के मोहभंग के लिए यही सोच जिम्मेवार रही।
इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने 'संघर्ष जारी रहेगा' के नाम से एक पत्रिका निकाली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस पत्रिका को दबे-कुचले लोगों की आवाज बना दी। हाशिए पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के दर्द को इस पत्रिका ने समेटा। सत्यार्थी उस दौर को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं, 'अस्सी के पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में बंधुआ मजदूर जैसे शब्द भी नहीं थे।' संघर्ष जारी रहेगा में बाल मजदूरों की समस्या को भी काफी प्रमुखता दी जाती थी। एक दिन पत्रिका के कार्यालय में वासल खान नाम का एक व्यक्ति आया और उसने बताया कि वह और उसका परिवार पिछले पंद्रह साल से पंजाब के एक ईंट भट्ठा पर बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। भट्ठा मालिक उसकी चौदह साल की मासूम बच्ची को दिल्ली से गए दलालों के हाथों बेचने वाले हैं। कई आंदोलनों में शामिल रहे नौजवान कैलाश ने न आव देखा न ताव और अपने कुछ साथियों और एक फोटोग्राफर को साथ लेकर पंजाब के उस ईंट भट्ठे पर पहुंच गए। चौकीदार को डरा-धमका कर बंधुआ मजदूरों को ट्रक में बैठा भी लिया। लेकिन इसी बीच भट्ठा मालिक पुलिस के साथ आ धमका। मजदूरों के साथ मार-पीट तो हुई ही, साथ ही साथ कैलाश और उनके साथियों के साथ भी दर्ुव्यवहार हुआ। इन नौजवानों को ट्रक के संग बैरंग वापस भेज दिया गया। फोटोग्राफर का कैमरा तोड़ दिया गया। लेकिन उसने फोटो खींची हुई तीन रील किसी तरह बचा ली थी। अगले दिन चंडीगढ़ और दिल्ली के अखबारों में यह फोटो अखबारों के पहले पन्ने पर थी। दिल्ली लौटने और जानकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद कैलाश सत्यार्थी उच्च न्यायालय चले गए। अदालत ने 48 घंटे के भीतर उन मजदूरों को पेश करने का फरमान जारी कर दिया। अगले ही दिन वे बंधुआ मजदूर दिल्ली ले आए गए और उन्हें वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिली। राष्ट्रीय स्तर पर सत्यार्थी की यह पहली बड़ी जीत थी। इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिल कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। वे बताते हैं, 'काम करने के दरम्यान यह बात पुख्ता होती गई कि बंधुआ मजदूरों में बड़ी संख्या बच्चों की है। इस वजह से मैंने बचपन बचाओ आंदोलन का गठन किया।' वर्तमान में देश भर के 12 प्रांतों में बचपन बचाओ आंदोलन की राज्य इकाईयां हैं। इस संस्था के तकरीबन बीस हजार सदस्य मासूमों को बचपन लौटाने की मुहिम में लगे हुए हैं। बचपन बचाओ आंदोलन ने हजारों बाल मजदूरों को कालीन, कांच, ईंट भट्ठों, पत्थर खदानों, घरेलू बाल मजदूरी तथा साड़ी उद्योग जैसे खतरनाक कामों से मुक्त कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आन्दोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गांव का चयन किया जाता है जो बाल मजदूरी से ग्रस्त हो। बाद में उस गांव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है तथा बच्चों का नामांकन स्कूल में कराया जाता है। इसके बाद इन बच्चों की बाल पंचायत बनाई जाती है। शहरों में इस योजना को बचपन बचाओ आन्दोलन बाल मित्र वार्ड के नाम से चला रहा है।
बाल मजदूरी के खिलाफ कैलाश सत्यार्थी ने देश के साथ विदेशों में भी अलख जगाया है। बीते साल ही उनके नेतृत्व में 108 देशों के चौदह हजार संगठनों के सहयोग से बाल मजदूरी विरोधी विश्व यात्रा आयोजित हुई। इसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। इसके प्र्रभाव के बारे में सत्यार्थी कहते हैं, 'आंदोलन का लाभ यह हुआ कि सार्क के सदस्य देशों ने जल्द ही बाल मजदूरी पर एक कार्यदल बनाने की घोषणा की है।' बचपन बचाने की इस मुहिम में सत्यार्थी को काफी ठोकरें भी खानी पड़ी हैं। बच्चों से मजूरी कराने वालों ने उनके साथी को मौत के घाट भी उतार दिया। सत्यार्थी पर भी हमला किया गया। 2004 में एक सर्कस में काम कर रही लड़कियों को छुड़ाने सत्यार्थी अपने बेटे और साथियों के साथ पहुंच गए। सर्कस चलाने वालों ने उन पर और उनके साथियों पर हमले किए। खून से सने सत्यार्थी अस्पताल में दाखिल कराए गए। अस्पताल से निकलते ही उन्होंने भूख हड़ताल की। इसके परिणामस्वरूप उन नेपाली बच्चियों को मुक्त कराया गया और उन्हें एक नई जिंदगी मिली। गुलामी की बेड़ियों से जकड़े बच्चों को मुक्त करवाने की बाद उनके जीवन को नई दिशा देने के खातिर बचपन बचाओ आंदोलन बाल आश्रम और बालिका आश्रम जैसे प्रकल्प भी चला रहा है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कैलाश सत्यार्थी ने जो कार्य किया है, वह वाकई काबिलेतारीफ है। इससे लोगों को प्रेरणा लेकर पहल करनी चाहिए। ताकि सही मायने में सामाजिक बदलाव हो सके और एक जनोपयोगी व्यवस्था कायम हो सके।
ईमेल: shekhar.du@gmail.com
Wednesday, January 30, 2008
CHILD REPORTING IS A SERIOUS JOB
Child reporting is often treated as a non serious job but the fact is quite different. Infact Journalists face significant challenges during reporting on children. This is a daunting task that needs time, skills and ethical considerations.
Media faces challenges such as attacks from Governments, commercial pressures...children's rights are violated as the media capitalises on their emotional impact and powerful images to boost the sale of their products.
Children's stories tend to be negative and dramatic and their voices are seldom heard as there is a very limited representation of children in the news.
However, any journalist reporting on children must have a better understanding of child rights. It can’t be justified that in some part of world media is revealing the identity (pictures and names) of children victims of sexual abuse, HIV and AIDS, domestic violence and other crimes.
In South Africa there is a proper Children's Act for media guidance. A journalist could land in jail for 20 years if found guilty of contravening the act.
Good reporting of children's issues gives a great deal of insight into the world they live in and telling a child's story well is a way for readers and audiences to examine themselves.