हिमाँशु शेखर
मध्यप्रदेश के विदिशा में एक मध्यमवर्गीय परिवार का पांच वर्षीय एक बच्चा पहली बार स्कूल जाता है। उस विद्यालय के बाहर वह लड़का अपने एक हमउम्र को जूता पालिश करते देखता है। वह गौर करता है कि जूता पालिश करने वाला बच्चा स्कूल जाने वाले बच्चों के जूतों को निहार रहा है। पहली बार स्कूल जा रहे बच्चे को यह बात अखर जाती है कि सारे बच्चे स्कूल जा रहे हैं लेकिन वह क्यों नहीं जा रहा है। वह इसकी शिकायत अपने शिक्षक से करता है और उचित जवाब नहीं मिलने पर स्कूल के हेडमास्टर से भी इसकी नालिश कर देता है। वहां उसे जवाब मिलता है कि इस जग में ऐसा होता है। अगले दिन वह लड़का जूता पालिश करने वाले बच्चे के पिता के पास जाकर पूछ बैठता है कि वे अपने बच्चे को स्कूल क्यों नहीं भेज रहे हैं? वह अभागा पिता इस नन्हें बालक को देखता रह जाता है और जो जवाब देता है, वह किसी भी सभ्य समाज को पानी-पानी कर देने के लिए काफी है। वह कहता है, 'बाबू जी, स्कूल में न तो मैं पढ़ने गया और न ही मेरे पूर्वज गए इसलिए यह भी नहीं जा रहा है। हम तो मजूरी और दूसरों की सेवा करने के लिए ही पैदा हुए हैं।' इस जवाब से हैरान-परेशान वह मासूम चाहते हुए भी उस अभागे बच्चे के लिए कुछ नहीं कर पाता है, लेकिन वह घटना उसके मन के किसी कोने में पड़ी रहती है। वही बच्चा जब जवान होता है तो एक वक्त ऐसा आता है कि वह लेक्चररशिप छोड़कर मासूमों को उनकी मासूमियत लौटाने की मुहिम में लग जाता है। वही मुहिम कुछ ही वर्षों में 'बचपन बचाओ आंदोलन' का रूप धारण कर लेती है और वह बच्चा देश के हजारों बच्चों की जीवन रेखा बन जाता है। इस जीवन रेखा को सारा जग कैलाश सत्यार्थी के नाम से जानता है। जब यह लेखक कैलाश सत्यार्थी से बातचीत करने पहुंचा तो उनके कार्यालय के रिसेप्शन पर लगा एक बोर्ड दिखा रहा था कि बचपन बचाओ आंदोलन उस पल तक 78,865 बच्चों को मुक्त करा चुका है।
कहने के लिए तो बच्चों को देश के भविष्य का तमगा दिया गया है। पर हकीकत यह है कि इस देश में मासूम उपेक्षित ही रहे हैं। उपेक्षा की मार झेल रहे इन बच्चों की दुर्दशा के लिए निश्चित तौर पर मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार है। पर अहम सवाल यह है कि अगर व्यवस्था का रोना रोते हुए हर कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहे तो सामाजिक बदलाव एक गुलाबी सपना से अधक कुछ भी नहीं साबित होगा। अगर वाकई देशवासी व्यवस्था में बदलाव को आतुर हैं तो उन्हें अपने-अपने स्तर पर पहल करनी होगी। नए-नए प्रयोग करने होंगे। प्रयोग जब होगा तब ही उसकी सफलता की संभावना भी बनेगी। अगर प्रयोग करने से पहले ही उसके सफलता-असफलता के कयास लगाने लगे तब तो हो गया बदलाव। इस मामले में भी लोगों के लिए कैलाश सत्यार्थी प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र में ही एक प्रयोग किया था। जिसने देखते ही देखते राई से पहाड़ का रूप धारण कर लिया।
उस प्रयोग को याद करते हुए कैलाश सत्यार्थी की आंखों में चमक आ जाती है। खुशमिजाज कैलाश बालकवत् सरलता से जब बोलना शुरू करते हैं तो ऐसा लगने लगता है जैसे सारा दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठा। वे कहते हैं, 'ग्यारह साल की उम्र रही होगी। छठी का परीक्षा परिणाम आने वाला था। मुझे यह पीड़ा बुरी तरह सता रही थी कि कई गरीब बच्चे सिर्फ किताब नहीं होने की वजह से पढ़ाई छोड़ रहे हैं। सो, मैंने अपने मित्र के साथ मिलकर एक ठेला किराए पर लिया। तीस अप्रैल को परीक्षा परिणाम आना था। उसी दिन ठेला लगाया और उस पर चढ़कर मैं बोलने लगा-बधाई, बधाई। आपके बच्चे पास कर गए हैं इसलिए बधाई। देखते-देखते भीड़ जुटने लगी और मेरा हौसला बढ़ने लगा। फिर मैंने कहना शुरू किया कि आज के बाद कई बच्चे स्कूल नहीं आएंगे। क्योंकि कई परिवारों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे नई किताब खरीद सकें। पर अगर आप चाहें तो उनकी पढ़ाई जारी रह सकती है। लोगों की जिज्ञासा बढ़ी और मेरा बोलना जारी रहा। मैंने कहा कि आपके घर में जो भी पुरानी किताब हैं उसे हमारे ठेले में डाल दें। जो बच्चे किताब नहीं खरीद सकते, उन्हें हम उनकी जरूरत की पुस्तकें साल भर के लिए पढ़ने को देंगे।' इसके बाद तो देखते ही देखते कैलाश सत्यार्थी का वह ठेला दिन भर में दो बार भरा। पहले ही दिन तकरीबन दो हजार किताबें जमा हो गईं। छठी कक्षा में पढ़ने वाले कैलाश के पास बीए और एमए तक की किताबें एकत्रित हो गईं। इन किताबों की समझ नहीं होने की वजह से उन्हें जानकार लोगों का सहयोग लेना पड़ा।
किसी ने ठीक ही कहा है कि जब इरादे नेक हों और रास्ता पाक हो तो कितना भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। हजारों किताबें जमा हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी विदिशा के कुछ स्कूलों के प्रधानाचार्यों से मिले। सब ने उस ग्यारह साल के मासूम के फौलादी इरादों का साथ दिया और विदिशा में पुस्तकों का एक ऐसा भंडार तैयार हो गया, जिसने कई विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने के संकट से उबारा। अभी भी यह पुस्तकालय वहां चल रहा है और जरूरतमंद इसका लाभ उठा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां विद्यार्थियों को पुस्तकें साल भर के लिए ही दी जाती हैं ताकि अगले साल उन किताबों से किसी और के अज्ञान का अंधोरा मिट सके। कैलाश सत्यार्थी के इस प्रयोग को छोटे-छोटे स्तर पर किए जाने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से अज्ञान का अंfधयारा मिटाने में काफी मदद मिलेगी और संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।
कैलाश सत्यार्थी जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। छात्र आंदोलन में सत्यार्थी की सक्रिय भागीदारी रही। इसी दरम्यान 1978 में उनकी शादी हो गई। जयप्रकाश आंदोलन के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'राजनीति में आने का भारी दबाव था। शरद यादव जैसे मेरे कई मित्र जनता पार्टी की टिकट पर विजय पताका फहरा चुके थे। उस चुनाव के वक्त मेरी उम्र महज 23 साल थी। अगर मैं 25 का होता तो मुझे जबर्दस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता।' यह पूछे जाने पर कि 25 के बाद राजनीति में क्यों नहीं गए? क्या टिकट मिलते वक्त उम्र कम होने का बाद में अफसोस नहीं हुआ? पहले तो कैलाश सत्यार्थी जोर का ठहाका लगाते हैं और फिर संजीदगी के साथ बोलते हैं, 'उस वक्त तक मैंने र्धामयुग, दिनमान के साथ-साथ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था। अपने कई लेखों और वक्तव्यों में मैंने साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि राजनीति के जरिए सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समाजनीति के जरिए समाज में बदलाव आता है। जनता की उपेक्षा करके नहीं बल्कि जनता को साथ लेकर ही राज और समाज में सकारात्मक बदलाव होगा।' राजनीति से कैलाश सत्यार्थी के मोहभंग के लिए यही सोच जिम्मेवार रही।
इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने 'संघर्ष जारी रहेगा' के नाम से एक पत्रिका निकाली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस पत्रिका को दबे-कुचले लोगों की आवाज बना दी। हाशिए पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के दर्द को इस पत्रिका ने समेटा। सत्यार्थी उस दौर को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं, 'अस्सी के पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में बंधुआ मजदूर जैसे शब्द भी नहीं थे।' संघर्ष जारी रहेगा में बाल मजदूरों की समस्या को भी काफी प्रमुखता दी जाती थी। एक दिन पत्रिका के कार्यालय में वासल खान नाम का एक व्यक्ति आया और उसने बताया कि वह और उसका परिवार पिछले पंद्रह साल से पंजाब के एक ईंट भट्ठा पर बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। भट्ठा मालिक उसकी चौदह साल की मासूम बच्ची को दिल्ली से गए दलालों के हाथों बेचने वाले हैं। कई आंदोलनों में शामिल रहे नौजवान कैलाश ने न आव देखा न ताव और अपने कुछ साथियों और एक फोटोग्राफर को साथ लेकर पंजाब के उस ईंट भट्ठे पर पहुंच गए। चौकीदार को डरा-धमका कर बंधुआ मजदूरों को ट्रक में बैठा भी लिया। लेकिन इसी बीच भट्ठा मालिक पुलिस के साथ आ धमका। मजदूरों के साथ मार-पीट तो हुई ही, साथ ही साथ कैलाश और उनके साथियों के साथ भी दर्ुव्यवहार हुआ। इन नौजवानों को ट्रक के संग बैरंग वापस भेज दिया गया। फोटोग्राफर का कैमरा तोड़ दिया गया। लेकिन उसने फोटो खींची हुई तीन रील किसी तरह बचा ली थी। अगले दिन चंडीगढ़ और दिल्ली के अखबारों में यह फोटो अखबारों के पहले पन्ने पर थी। दिल्ली लौटने और जानकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद कैलाश सत्यार्थी उच्च न्यायालय चले गए। अदालत ने 48 घंटे के भीतर उन मजदूरों को पेश करने का फरमान जारी कर दिया। अगले ही दिन वे बंधुआ मजदूर दिल्ली ले आए गए और उन्हें वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिली। राष्ट्रीय स्तर पर सत्यार्थी की यह पहली बड़ी जीत थी। इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिल कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। वे बताते हैं, 'काम करने के दरम्यान यह बात पुख्ता होती गई कि बंधुआ मजदूरों में बड़ी संख्या बच्चों की है। इस वजह से मैंने बचपन बचाओ आंदोलन का गठन किया।' वर्तमान में देश भर के 12 प्रांतों में बचपन बचाओ आंदोलन की राज्य इकाईयां हैं। इस संस्था के तकरीबन बीस हजार सदस्य मासूमों को बचपन लौटाने की मुहिम में लगे हुए हैं। बचपन बचाओ आंदोलन ने हजारों बाल मजदूरों को कालीन, कांच, ईंट भट्ठों, पत्थर खदानों, घरेलू बाल मजदूरी तथा साड़ी उद्योग जैसे खतरनाक कामों से मुक्त कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आन्दोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गांव का चयन किया जाता है जो बाल मजदूरी से ग्रस्त हो। बाद में उस गांव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है तथा बच्चों का नामांकन स्कूल में कराया जाता है। इसके बाद इन बच्चों की बाल पंचायत बनाई जाती है। शहरों में इस योजना को बचपन बचाओ आन्दोलन बाल मित्र वार्ड के नाम से चला रहा है।
बाल मजदूरी के खिलाफ कैलाश सत्यार्थी ने देश के साथ विदेशों में भी अलख जगाया है। बीते साल ही उनके नेतृत्व में 108 देशों के चौदह हजार संगठनों के सहयोग से बाल मजदूरी विरोधी विश्व यात्रा आयोजित हुई। इसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। इसके प्र्रभाव के बारे में सत्यार्थी कहते हैं, 'आंदोलन का लाभ यह हुआ कि सार्क के सदस्य देशों ने जल्द ही बाल मजदूरी पर एक कार्यदल बनाने की घोषणा की है।' बचपन बचाने की इस मुहिम में सत्यार्थी को काफी ठोकरें भी खानी पड़ी हैं। बच्चों से मजूरी कराने वालों ने उनके साथी को मौत के घाट भी उतार दिया। सत्यार्थी पर भी हमला किया गया। 2004 में एक सर्कस में काम कर रही लड़कियों को छुड़ाने सत्यार्थी अपने बेटे और साथियों के साथ पहुंच गए। सर्कस चलाने वालों ने उन पर और उनके साथियों पर हमले किए। खून से सने सत्यार्थी अस्पताल में दाखिल कराए गए। अस्पताल से निकलते ही उन्होंने भूख हड़ताल की। इसके परिणामस्वरूप उन नेपाली बच्चियों को मुक्त कराया गया और उन्हें एक नई जिंदगी मिली। गुलामी की बेड़ियों से जकड़े बच्चों को मुक्त करवाने की बाद उनके जीवन को नई दिशा देने के खातिर बचपन बचाओ आंदोलन बाल आश्रम और बालिका आश्रम जैसे प्रकल्प भी चला रहा है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कैलाश सत्यार्थी ने जो कार्य किया है, वह वाकई काबिलेतारीफ है। इससे लोगों को प्रेरणा लेकर पहल करनी चाहिए। ताकि सही मायने में सामाजिक बदलाव हो सके और एक जनोपयोगी व्यवस्था कायम हो सके।
ईमेल: shekhar.du@gmail.com
कहने के लिए तो बच्चों को देश के भविष्य का तमगा दिया गया है। पर हकीकत यह है कि इस देश में मासूम उपेक्षित ही रहे हैं। उपेक्षा की मार झेल रहे इन बच्चों की दुर्दशा के लिए निश्चित तौर पर मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार है। पर अहम सवाल यह है कि अगर व्यवस्था का रोना रोते हुए हर कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहे तो सामाजिक बदलाव एक गुलाबी सपना से अधक कुछ भी नहीं साबित होगा। अगर वाकई देशवासी व्यवस्था में बदलाव को आतुर हैं तो उन्हें अपने-अपने स्तर पर पहल करनी होगी। नए-नए प्रयोग करने होंगे। प्रयोग जब होगा तब ही उसकी सफलता की संभावना भी बनेगी। अगर प्रयोग करने से पहले ही उसके सफलता-असफलता के कयास लगाने लगे तब तो हो गया बदलाव। इस मामले में भी लोगों के लिए कैलाश सत्यार्थी प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र में ही एक प्रयोग किया था। जिसने देखते ही देखते राई से पहाड़ का रूप धारण कर लिया।
उस प्रयोग को याद करते हुए कैलाश सत्यार्थी की आंखों में चमक आ जाती है। खुशमिजाज कैलाश बालकवत् सरलता से जब बोलना शुरू करते हैं तो ऐसा लगने लगता है जैसे सारा दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठा। वे कहते हैं, 'ग्यारह साल की उम्र रही होगी। छठी का परीक्षा परिणाम आने वाला था। मुझे यह पीड़ा बुरी तरह सता रही थी कि कई गरीब बच्चे सिर्फ किताब नहीं होने की वजह से पढ़ाई छोड़ रहे हैं। सो, मैंने अपने मित्र के साथ मिलकर एक ठेला किराए पर लिया। तीस अप्रैल को परीक्षा परिणाम आना था। उसी दिन ठेला लगाया और उस पर चढ़कर मैं बोलने लगा-बधाई, बधाई। आपके बच्चे पास कर गए हैं इसलिए बधाई। देखते-देखते भीड़ जुटने लगी और मेरा हौसला बढ़ने लगा। फिर मैंने कहना शुरू किया कि आज के बाद कई बच्चे स्कूल नहीं आएंगे। क्योंकि कई परिवारों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे नई किताब खरीद सकें। पर अगर आप चाहें तो उनकी पढ़ाई जारी रह सकती है। लोगों की जिज्ञासा बढ़ी और मेरा बोलना जारी रहा। मैंने कहा कि आपके घर में जो भी पुरानी किताब हैं उसे हमारे ठेले में डाल दें। जो बच्चे किताब नहीं खरीद सकते, उन्हें हम उनकी जरूरत की पुस्तकें साल भर के लिए पढ़ने को देंगे।' इसके बाद तो देखते ही देखते कैलाश सत्यार्थी का वह ठेला दिन भर में दो बार भरा। पहले ही दिन तकरीबन दो हजार किताबें जमा हो गईं। छठी कक्षा में पढ़ने वाले कैलाश के पास बीए और एमए तक की किताबें एकत्रित हो गईं। इन किताबों की समझ नहीं होने की वजह से उन्हें जानकार लोगों का सहयोग लेना पड़ा।
किसी ने ठीक ही कहा है कि जब इरादे नेक हों और रास्ता पाक हो तो कितना भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। हजारों किताबें जमा हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी विदिशा के कुछ स्कूलों के प्रधानाचार्यों से मिले। सब ने उस ग्यारह साल के मासूम के फौलादी इरादों का साथ दिया और विदिशा में पुस्तकों का एक ऐसा भंडार तैयार हो गया, जिसने कई विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने के संकट से उबारा। अभी भी यह पुस्तकालय वहां चल रहा है और जरूरतमंद इसका लाभ उठा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां विद्यार्थियों को पुस्तकें साल भर के लिए ही दी जाती हैं ताकि अगले साल उन किताबों से किसी और के अज्ञान का अंधोरा मिट सके। कैलाश सत्यार्थी के इस प्रयोग को छोटे-छोटे स्तर पर किए जाने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से अज्ञान का अंfधयारा मिटाने में काफी मदद मिलेगी और संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।
कैलाश सत्यार्थी जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। छात्र आंदोलन में सत्यार्थी की सक्रिय भागीदारी रही। इसी दरम्यान 1978 में उनकी शादी हो गई। जयप्रकाश आंदोलन के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'राजनीति में आने का भारी दबाव था। शरद यादव जैसे मेरे कई मित्र जनता पार्टी की टिकट पर विजय पताका फहरा चुके थे। उस चुनाव के वक्त मेरी उम्र महज 23 साल थी। अगर मैं 25 का होता तो मुझे जबर्दस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता।' यह पूछे जाने पर कि 25 के बाद राजनीति में क्यों नहीं गए? क्या टिकट मिलते वक्त उम्र कम होने का बाद में अफसोस नहीं हुआ? पहले तो कैलाश सत्यार्थी जोर का ठहाका लगाते हैं और फिर संजीदगी के साथ बोलते हैं, 'उस वक्त तक मैंने र्धामयुग, दिनमान के साथ-साथ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था। अपने कई लेखों और वक्तव्यों में मैंने साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि राजनीति के जरिए सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समाजनीति के जरिए समाज में बदलाव आता है। जनता की उपेक्षा करके नहीं बल्कि जनता को साथ लेकर ही राज और समाज में सकारात्मक बदलाव होगा।' राजनीति से कैलाश सत्यार्थी के मोहभंग के लिए यही सोच जिम्मेवार रही।
इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने 'संघर्ष जारी रहेगा' के नाम से एक पत्रिका निकाली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस पत्रिका को दबे-कुचले लोगों की आवाज बना दी। हाशिए पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के दर्द को इस पत्रिका ने समेटा। सत्यार्थी उस दौर को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं, 'अस्सी के पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में बंधुआ मजदूर जैसे शब्द भी नहीं थे।' संघर्ष जारी रहेगा में बाल मजदूरों की समस्या को भी काफी प्रमुखता दी जाती थी। एक दिन पत्रिका के कार्यालय में वासल खान नाम का एक व्यक्ति आया और उसने बताया कि वह और उसका परिवार पिछले पंद्रह साल से पंजाब के एक ईंट भट्ठा पर बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। भट्ठा मालिक उसकी चौदह साल की मासूम बच्ची को दिल्ली से गए दलालों के हाथों बेचने वाले हैं। कई आंदोलनों में शामिल रहे नौजवान कैलाश ने न आव देखा न ताव और अपने कुछ साथियों और एक फोटोग्राफर को साथ लेकर पंजाब के उस ईंट भट्ठे पर पहुंच गए। चौकीदार को डरा-धमका कर बंधुआ मजदूरों को ट्रक में बैठा भी लिया। लेकिन इसी बीच भट्ठा मालिक पुलिस के साथ आ धमका। मजदूरों के साथ मार-पीट तो हुई ही, साथ ही साथ कैलाश और उनके साथियों के साथ भी दर्ुव्यवहार हुआ। इन नौजवानों को ट्रक के संग बैरंग वापस भेज दिया गया। फोटोग्राफर का कैमरा तोड़ दिया गया। लेकिन उसने फोटो खींची हुई तीन रील किसी तरह बचा ली थी। अगले दिन चंडीगढ़ और दिल्ली के अखबारों में यह फोटो अखबारों के पहले पन्ने पर थी। दिल्ली लौटने और जानकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद कैलाश सत्यार्थी उच्च न्यायालय चले गए। अदालत ने 48 घंटे के भीतर उन मजदूरों को पेश करने का फरमान जारी कर दिया। अगले ही दिन वे बंधुआ मजदूर दिल्ली ले आए गए और उन्हें वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिली। राष्ट्रीय स्तर पर सत्यार्थी की यह पहली बड़ी जीत थी। इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिल कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। वे बताते हैं, 'काम करने के दरम्यान यह बात पुख्ता होती गई कि बंधुआ मजदूरों में बड़ी संख्या बच्चों की है। इस वजह से मैंने बचपन बचाओ आंदोलन का गठन किया।' वर्तमान में देश भर के 12 प्रांतों में बचपन बचाओ आंदोलन की राज्य इकाईयां हैं। इस संस्था के तकरीबन बीस हजार सदस्य मासूमों को बचपन लौटाने की मुहिम में लगे हुए हैं। बचपन बचाओ आंदोलन ने हजारों बाल मजदूरों को कालीन, कांच, ईंट भट्ठों, पत्थर खदानों, घरेलू बाल मजदूरी तथा साड़ी उद्योग जैसे खतरनाक कामों से मुक्त कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आन्दोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गांव का चयन किया जाता है जो बाल मजदूरी से ग्रस्त हो। बाद में उस गांव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है तथा बच्चों का नामांकन स्कूल में कराया जाता है। इसके बाद इन बच्चों की बाल पंचायत बनाई जाती है। शहरों में इस योजना को बचपन बचाओ आन्दोलन बाल मित्र वार्ड के नाम से चला रहा है।
बाल मजदूरी के खिलाफ कैलाश सत्यार्थी ने देश के साथ विदेशों में भी अलख जगाया है। बीते साल ही उनके नेतृत्व में 108 देशों के चौदह हजार संगठनों के सहयोग से बाल मजदूरी विरोधी विश्व यात्रा आयोजित हुई। इसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। इसके प्र्रभाव के बारे में सत्यार्थी कहते हैं, 'आंदोलन का लाभ यह हुआ कि सार्क के सदस्य देशों ने जल्द ही बाल मजदूरी पर एक कार्यदल बनाने की घोषणा की है।' बचपन बचाने की इस मुहिम में सत्यार्थी को काफी ठोकरें भी खानी पड़ी हैं। बच्चों से मजूरी कराने वालों ने उनके साथी को मौत के घाट भी उतार दिया। सत्यार्थी पर भी हमला किया गया। 2004 में एक सर्कस में काम कर रही लड़कियों को छुड़ाने सत्यार्थी अपने बेटे और साथियों के साथ पहुंच गए। सर्कस चलाने वालों ने उन पर और उनके साथियों पर हमले किए। खून से सने सत्यार्थी अस्पताल में दाखिल कराए गए। अस्पताल से निकलते ही उन्होंने भूख हड़ताल की। इसके परिणामस्वरूप उन नेपाली बच्चियों को मुक्त कराया गया और उन्हें एक नई जिंदगी मिली। गुलामी की बेड़ियों से जकड़े बच्चों को मुक्त करवाने की बाद उनके जीवन को नई दिशा देने के खातिर बचपन बचाओ आंदोलन बाल आश्रम और बालिका आश्रम जैसे प्रकल्प भी चला रहा है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कैलाश सत्यार्थी ने जो कार्य किया है, वह वाकई काबिलेतारीफ है। इससे लोगों को प्रेरणा लेकर पहल करनी चाहिए। ताकि सही मायने में सामाजिक बदलाव हो सके और एक जनोपयोगी व्यवस्था कायम हो सके।
ईमेल: shekhar.du@gmail.com
aapki bichardhara gajab ki hai aur soch masa alla kamal ki hai , isi soch ko Ramesh Thakur ka salam ,,,,,,,
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