हिमांशु शेखर
कभी जीवन की बुनियादी आवष्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान को षुमार किया जाता था। जिंदगी गुजारने के लिए आज भी ये बेहद जरूरी हैं। पर बीते कुछ दषकों में बदली वैष्विक परिस्थिति और जीवनषैली ने इस कड़ी में ऊर्जा को भी जोड़ दिया है। आज दुनिया का हर देष इस मसले पर चिंतित है। कोई भी अर्थव्यस्था अपनी विकास की रफ्तार को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा किए बगैर बनाए नहीं रख सकती। अभी भारत में परमाणु करार किए जाने के पीछे भी सत्ता में बैठे लोग और सरकारी महकमा बढ़ती ऊर्जा आवष्यकताओं को पूरा किए जाने का ही तर्क दे रही है। हालांकि, यह एक अलग मसला है जिस परमाणु ऊर्जा के जरिए विकास का ख्वाब देष की सरकार संजो रही है, वह खतरों से खाली नहीं है। एक तो परमाणु ऊर्जा की लागत बहुत ज्यादा होती है वहीं दूसरी तरफ अंतरराश्ट्रीय स्तर पर कई बंदिषें भी इस करार के तहत जुड़ी हुई हैं। पर एक बात तो तय है कि जिस तेजी से भारत की ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं, उस तेजी से इसका उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इस बात को स्वीकारने में भी किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि उपलब्ध संसाधनों और परमाणु ऊर्जा के जरिए भी बात बनने वाली नहीं है। ऐसे में आज वक्त की जरूरत यह है कि वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को तलाषा जाए और बढ़ती जरूरतों की पूर्ति की जाए। दुनिया के कई देषों ने वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है और एक मिसाल कायम किया है।बहरहाल, जब वैकल्पिक ऊर्जा की बात की जाती है तो सबसे पहले जेहन में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे स्रोत उभरते हैं। पर बात केवल इन्हीं से बनने वाली नहीं है। क्योंकि औद्योगिकरण की जिस डगर पर दुनिया चल रही है उस पर सषक्त ढंग से बने रहने के लिए ऊर्जा जरूरतें काफी बढ़ गई हैं। यह ऊर्जा की बढ़ती मांग ही है कि इसने खुद में एक उद्योग का षक्ल अख्तियार कर लिया है। और ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि ऊर्जा का कारोबार में कुछ उसी तरह का उछाल आने वाला है जिस तरह का उछाल अस्सी के दषक में कंप्यूटर के क्षेत्र में, नब्बे के दषक में इंटरनेट के क्षेत्र में और इक्कीसवी सदी के षुरूआती दौर में नैनो तकनीक के क्षेत्र में आया था। खैर, कुछ साल पहले तक दुनिया का तकरीबन हर देष काफी हद तक ऊर्जा के पारंपरिक साधनों पर ही निर्भर था। इसमें कोयला और तेल प्रमुख थे। बिजली के उत्पादन के लिए भी कोयला पर ही निर्भरता ज्यादा थी। ऐसा बताया जा रहा है कि अभी भारत को जितनी ऊर्जा की जरूरत है उससे चालीस हजार मेगावाट कम बिजली की आपूर्ति हो पा रही है। देष में ज्यादातर बिजली का उत्पादन कोयला आधारित तकनीक से होता है। जिससे कार्बन डाइआक्साड का उत्सर्जन भी भारी मात्रा में होता है। जो पर्यावरण की दृश्टि से बेहद खतरनाक है। एक अनुमान के मुताबिक देष में सलाना तकरीबन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान बिजली आपूर्ति व्यवस्था के दुरुस्त नहीं होने और बिजली की चोरी की वजह से होता है। एक जानकार ने कुछ साल पहले अपने अध्ययन के आधार पर यह हिसाब लगाया था कि दुनिया को जितनी सूर्य की रोषनी उपलब्ध है, अगर उसका प्रयोग बिजली बनाने में कर लिया जाए तो अभी जितनी बिजली की खपत दुनिया में है उससे बीस हजार गुना ज्यादा बिजली बनाई जा सकती है। इससे मिलती-जुलती बातें कई और अध्ययनों से उभर कर सामने आई हैं। उपलब्ध गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के प्रयोग को गति दिए जाने की दरकार है। इस मामले में भारत की हालत भी बेहद उत्साहजनक नहीं है। भारत में अभी गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के महज डेढ़ फीसद का ही प्रयोग हो पा रहा है। ऐसे में इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि अगर उपलब्ध संसाधनों का अच्छी तरह दोहन हो तो देष की ऊर्जा की समस्या से पार पाना एक ख्वाब नहीं रह पाएगा बल्कि हकीकत में तब्दील हो जाएगा। पर विडंबना यह है कि इन ऊर्जा स्रोतों और इनके प्रयोग को लेकर आज भी देष का एक बड़ा तबका गाफिल ही है। अभी हालत यह है कि भारत में वैकल्पिक स्रोतों से बनाई जाने वाली बिजली में दो तिहाई हिस्सेदारी तमिलनाडु की ही है। ऐसा इसलिए है कि वहां सरकारी स्तर पर इन ऊर्जा स्रोतों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया गया। देष भर में गैरपारंपरिक स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन के प्रति लोगों को जागरूक बनाए जाने की जरूरत है। बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए कुछ दषक पहले विष्व ने आणविक ऊर्जा के उत्पादन की ओर भी कदम बढ़ाया। लेकिन यह प्रयोग बेहद उत्साहजनक नहीं रहा और मामला फिर वैकल्पिक ऊर्जा की तलाष पर पहुंच गया। वैकल्पिक ऊर्जा के प्रति दुनिया की बढ़ती रूचि के लिए तेल की बढ़ती कीमतें भी जिम्मेवार हैं। इसके अलावा सब को इस बात का अहसास हो गया कि जिस तेजी से तेल की मांग बढ़ रही है उस तेजी से आपूर्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि तेल के भंडार भी सीमित हैं और इसकी एक अलग अंतरराश्ट्रीय सियासत है। इसलिए तेल की कीमतों को चाहते हुए भी काबू में नहीं रखा जा सकता। बतातें चलें कि वैष्विक बाजार में तेल की कीमत अभी एक सौ चालीस डाॅलर प्रति बैरल के करीब है और जानकारों की मानें तो अभी इसके थमने के आसार नहीं दिख रहे हैं। इसके अलावा ऊर्जा के एक अहम स्रोत के रूप में षुमार किए जाने वाले प्राकृतिक गैस की कीमत भी बढ़ते ही जा रही है और कोयला भी महंगाई के इस दौर मंे अपवाद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है कि देर-सबेर न चाहते हुए भी ऊर्जा के नए रास्तांे को तलाषना ही होगा। इसलिए इस दिषा में सोचने-विचारने और कुछ करने की पहल जितना जल्दी हो उतना ही अच्छा होगा। यह सच है कि कोयला आधारित बिजली घर बनाने की तुलना मंे सौर और पवन ऊर्जा पर आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र लगाने मंे खर्च अधिक आता है। पर उत्पादन लागत के मामले में ये संयंत्र कोयला आधारित संयंत्र को मात देने वाले हैं। इसलिए कुल मिलाजुला कर दीर्घकालिक तौर पर ये फायदे का सौदा साबित होने जा रहे हैं। वैष्विक स्तर पर ऊर्जा के बाजार का आकार काफी बड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर के लोग संयुक्त तौर पर अभी पंद्रह टेट्रावाट बिजली की खपत करते हैं। जिसकी कीमत छह ट्रिलीयन डाॅलर है। जो दुनिया की अर्थव्यवस्था का दसवां हिस्सा है। ऊर्जा की यह मांग 2050 तक बढ़कर तीस टेट्रावाट पर पहुंच जाने की उम्मीद जताई जा रही है। उल्लेखनीय है कि एक टेट्रावाट मंे हजार गिगावाट होते हैं और एक गिगावाट कोयले से चलने वाली किसी भी बिजली घर की अधिकतम उत्पादन क्षमता है। ऊर्जा के इस बड़े बाजार पर कब्जा जमाने के लिए दुनिया की कई नामीगिरामी कंपनियों ने इस क्षेत्र मंे भारी-भरकम निवेष भी किया है। इसमंे जनरल इलैक्ट्रिक्स का नाम सबसे अहम है। यह अमेरिका की प्रमुख इंजीनियरिंग कंपनियों मे से एक है। इस कंपनी ने पवन ऊर्जा के व्यवसाय में अपनी तगड़ी मौजूदगी दर्ज करा ली है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में मजबूत षुरूआत की है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन बनाने के मामले में भी यह कंपनी अव्वल है। कंपनी ने इस साल के जून तक ही तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए का टरबाइन बेचा। दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में षुमार किए जाने वाले बीपी और षेल ने भी वैकल्पिक ऊर्जा के बाजार में दखल देने के लिए तैयारी षुरू कर दी है। इसके लिए ये दोनों कंपनियां बाकायदा षोध करवा रही हैं। संयुक्त राश्ट्र की एक रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में होने वाले निवेष की सलाना विकास दर साठ फीसद है। 2006 की तुलना में 2007 में 148 बिलियन डाॅलर का निवेष इस क्षेत्र मेें किया गया। इसमें सबसे ज्यादा पैसा पवन ऊर्जा में लगाया गया। अकेले इस क्षेत्र में 50.2 बिलियन डाॅलर का निवेष हुआ। जबकि तेजी से बढ़ रहा सौर ऊर्जा का क्षेत्र 28.6 बिलियन डाॅलर की पूंजी आकर्शित कर पाया। गौरतलब है कि अंतरराश्ट्रीय स्तर पर सौर ऊर्जा का बाजार 2004 से सलाना 254 फीसद की दर से विकास कर रहा है। जैव ईंधन में होने वाले निवेष में कमी आई है। क्योंकि इसके सुरक्षित होने पर ही प्रष्न चिन्ह लगने लगे हैं। 2007 में जैव ईंधन में महज 2.1 बिलियन का ही निवेष हो पाया। संयुक्त राश्ट्र की इस रपट में अनुमान लगाया गया है कि वैकल्पिक ऊर्जा का बाजार 2012 तक बढ़कर चार सौ पचास बिलियन डाॅलर तक पहुंच जाएगा। जबकि 2020 तक इसके बढ़कर 600 बिलियन डाॅलर के पार पहंुच जाने की संभावना है। कार्बन क्रेडिट की अवधारणा आ जाने से बड़े से बड़े देष और कंपनी के लिए नए राह को अख्तियार करने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचा है। गौरतलब है कि कार्बन क्रेडिट वह व्यवस्था है जिसके तहत प्रदूशण के स्तर के आधार पर हर देष को अंक मिलते हैं। प्रदूशण की मात्रा एक निष्चित सीमा से अधिक होने पर उस देष को जुर्माना भरना पड़ता है या फिर दूसरे देष से कार्बन क्रेडिट खरीदना पड़ता है। जिस देष में हरियाली ज्यादा होगी और प्रदूशण कम होगा, उसे ज्यादा अंक मिलने की व्यवस्था है और उसके पास ज्यादा कार्बन क्रेडिट संचित होता है। जिसे वह दूसरे देष को बेच भी सकता है। इसलिए अब पारंपिक तरीकों को छोड़कर बदली हालत के हिसाब से रास्ते तलाषे जा रहे हैं। वैसे तो ऊर्जा उत्पादन के लिए सबसे सस्ता जरिया अभी भी कोयला ही बना हुआ है। पर कार्बन क्रेडिट की पेंच ने कोयला के प्रयोग को हतोत्साहित करना षुरू कर दिया है। क्योंकि कोयला से भारी मात्रा में कार्बन डाय आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसके निस्तारण के लिए अभी तक कोई सस्ता और सुलभ तरीका नहीं ढूंढा जा सका है। जो तरीके अभी जानकार बता रहे हैं, वे काफी महंगे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा अब प्रदूशण सीधे तौर पर नोटों की गड्डियों से जुड़ गया है। इस वजह से बाजार के बड़े खिलाड़ियों के माथे पर बल पड़ गए हैं। पर यह निष्चय ही पर्यावरण के लिहाज से एक सुखद स्थिति है। क्योंकि इसी बहाने सही ऊर्जा उत्पादन के प्रदूशणकारी माध्यमों पर लगाम तो लग रही है।दुनिया में एक ऐसा तबका भी है कि जो जैव ईंधन को भी वैकल्पिक ऊर्जा के एक स्रोत के तौर पर देखता है। जैव ईंधन के बारे में कुछ साल पहले तक बहुत नफा गिनाए गए थे लेकिन ताजा अध्ययन बताते हैं कि यह नुकसान का सौदा है। अमेरिका में तो वैकल्पिक ऊर्जा का कारोबार किसानों के लिए भी फायदे का सौदा साबित हो रहा है। वहां पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए संयंत्र लगाने के लिए बड़ी कंपनियां किसानों से उनकी जमीन किराए पर ले रही हैं। इसके एवज में जमीन के स्वामी को उसकी जमीन पर लगे संयंत्र से उत्पादन होने वाली बिजली से होने वाली आमदनी का तीन फीसद हिस्सा दिया जा रहा है। जानकारों ने अनुमान लगाया है कि एक हेक्टेयर जमीन देने वाले को हर साल औसतन दस हजार डाॅलर मिलेंगे। जबकि इसी जमीन पर वह मक्के की खेती करता है तो उसे महज तीन सौ डाॅलर की ही आमदनी होगी। यह ऊर्जा के क्षेत्र में बहती बदलाव की बयार ही है कि कोयले से बनने वाले बिजली पर काफी हद तक निर्भर रहने वाला चीन पवन ऊर्जा के उत्पादन के मामले में काफी तेजी से प्रगति कर रहा है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में चीन सलाना 66 फीसद की दर से विकास कर रहा है। सौर ऊर्जा के मामले में भी चीन दूसरे देषों की तुलना में काफी आगे है। सौर प्लेट के निर्माण के मामले में चीन दुनिया भर में अव्वल है। चीन के अधिकांष घरों के छत पर सौर प्लेट लगे हुए हैं। जाहिर है कि इससे वहां के लोगों का बिजली पर होने वाला खर्च बच रहा है। जिसका फायदा आखिरकार चीन की अर्थव्यवस्था को मिल रहा है। पवन ऊर्जा के मामले में स्पेन ने भी दुनिया के लिए एक उदाहरण पेष किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने के लिए वहां की सरकार ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और यह कार्य पूरी तरह से योजना बनाकर किया गया है। अमेरिका में कुल बिजली उत्पादन में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी महज एक फीसद है। पर वहां के नीति निर्माताओं ने 2020 तक इसे बढ़ाकर पंद्रह फीसद तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। इसमें एक खास तरह के पंखे के इस्तेमाल पर अमेरिका के इंजीनियर षोध कर रहे हैं। अलबर्ट बंेज नामक वैज्ञानिक ने बीसवीं सदी की षुरूआत में ही अपने षोध के आधार पर बता दिया था कि पवन ऊर्जा के लिए प्रयुक्त टरबाइन की कार्यकुषलता 59.3 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकती है। अभी जिन टरबाइनों का उपयोग हो रहा है उनकी कार्यकुषलता पचास फीसद तक है और ऐसी अपेक्षा की जा रही है कि आने वाले दिनों में इसमें और ईजाफा होगा। इसकी वजह से पवन ऊर्जा का उत्पादन लागत भी स्वभाविक तौर पर घटा है और इसमें कमी आने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने से पहले अब स्थान का खास तौर पर ध्यान रखा जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि वैसे जगहों पर ही टर्बाइन लगाए जा रहे हैं जहां बिजली उत्पादन के लिए माकूल परिस्थितियां हों। कहना न होगा कि हवा के दबाव का पवन ऊर्जा के उत्पादन में अहम भूमिका है। इसलिए उन्हीं जगहों को चुना जा रहा है जहां वायु का बहाव षक्तिषाली हो। क्योंकि बहाव में औसतन दो किलोमीटर प्रति घंटे का अंतर भी बिजली उत्पादन की क्षमता पर प्रभाव डालने में सक्षम है। वैसे जगहों पर जहां हवा की गति अपेक्षाकृत तेज होती है वहां आमतौर पर लोग नहीं रहते हैं। इस वजह से जहां पवन ऊर्जा का उत्पादन होता है वहां इसकी खपत नहीं होती। इसलिए इसकी आपूर्ति के दौरान बिजली का अच्छा-खासा नुकसान होता है। इस नुकसान को कम से कम करने के लिए भी इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रयासरत हैं और बीते कुछ सालों मेें तो इसे कुछ कम किया भी गया है। जैसे-जैसे इसमें कामयाबी मिलती जाएगी वैसे-वैसे पवन ऊर्जा के प्रति दुनिया भर में रूझान बढ़ता जाएगा। जिसके सकारात्मक परिणाम आने तय हैं।