गैरबराबरी का मारा हिन्दोस्तां मारा
Himanshu Shekhar
समाज में बराबरी लाने के नाम पर राजनीतिज्ञ सियासत करते हैं, वोट बटोरते हैं और सत्ता में आने पर बदले में विषमता को गति देने वाली नीतियों पर मुहर लगाते हैं। आज भी देश में लाखों लोग भूखे पेट सोते हैं, करोड़ों को भर पेट भोजन नहीं मिल पाता है और सत्ता में बैठे लोग भारत को महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे हैं। या यों कहें आम लोगों को गुलाबी सपने दिखाकर बरगला रहे हैं। इस गुलाबी सपने के सौदागर सियासतदानों और पूंजीपतियों की सांठ-गांठ की वजह से भारत में आज जितनी आर्थिक असमानता हो गई है, उतनी तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं थी।
मानव सभ्यता और आर्थिक असमानता का काफी पुराना साथ रहा है। वर्ग संघर्ष जैसी अवघारणा के उदय के पीछे आर्थिक गैरबराबरी एक बड़ी वजह थी। समय-समय पर इस मसले को लेकर संघर्ष भी होते रहे हैं। पर जैसे-जैसे दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास हुआ, वैसे-वैसे यह आस बंधती गई कि गैरबराबरी पर आघारित व्यवस्था में सुघार होगा। घोषित तौर पर लोकतंत्र में सामाजिक असमानता को पाटना ही मुख्य लक्ष्य होता है। जाहिर है, आर्थिक समता को प्राप्त किए बगैर, सामाजिक समता की बात भी बेमानी होगी।
समाज में चौतरफा पैफल रही विषमता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार आर्थिक गैरबराबरी ही है। भारत आजादी के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पर चला। अस्सी के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में बदलाव की शुरूआत हुई। इसी दशक में राजीव गांधी प्रघानमंत्री बने और उन्होंने देश में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने का पैफसला किया। राजनैतिक अस्थिरता के उस दौर में उनकी नीतियां मूर्त रूप नहीं ले सकीं। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केन्द्र में कांग्रेस सरकार बनी। अर्थशास्त्री वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 1991 को भारत में औपचारिक तौर पर नई आर्थिक नीतियों को लागू करने की घोषणा कर दी। यानी सरकार ने जन आघारित अर्थव्यवस्था को बाजार या यों कहें धन आघारित अर्थव्यवस्था में बदलने पर औपचारिक मुहर लगा दी। इसके बाद पूंजीवाद की गाड़ी देश में सरपट दौड़ने लगी और आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती गई।
बहरहाल, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आर्थिक गैरबराबरी की वजह से ही राज और समाज में कई तरह की विषमता पैफलती है। आर्थिक असमानता की वजह से समाज में जीवनशैली, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास के अलावा भी कई बुनियादी मोर्चों पर गैरबराबरी बढ़ रही है। इन मोर्चों पर विषमता बढ़ने से स्वभाविक तौर पर सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहा है। इनके प्रभाव से व्यवस्था का बचे रहना संभव नहीं है।
समाज में बराबरी लाने के नाम पर राजनीतिज्ञ सियासत करते हैं, वोट बटोरते हैं और सत्ता में आने पर बदले में विषमता को ही गति देने वाली नीतियों पर मुहर लगाते हैं। आज कहने को देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर उंफची है, साथ ही शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक ऐतेहासिक स्तर पर है और विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन इसका फायदा मुट्ठी भर पूंजीपतियों को ही मिल पा रहा है। देश के ज्यादातर लोगों को इससे जरा सा भी फायदा नहीं हो रहा है। आज भी देश में लाखों लोग भूखे पेट सोते हैं, करोड़ों को भर पेट भोजन नहीं मिल पाता है और सत्ता में बैठे लोग भारत को महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे हैं। या यों कहें आम लोगों को गुलाबी सपने दिखाकर बरगला रहे हैं। इस गुलाबी सपने के सौदागर सियासतदानों और पूंजीपतियों की सांठ-गांठ की वजह से भारत में आज जितनी आर्थिक असमानता हो गई है, उतनी तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं थी।
तेजी से बढ़ती आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकार यह कुतर्क देती है कि अगर अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा है तो इसका लाभ नीचे के लोगों तक अवश्य पहुंचेगा। नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री जोसेपफ स्टिगलिट्स ने अपनी पुस्तक 'मेंविंफग ग्लोबलाइजेशन वर्क' में लिखा है कि आर्थिक विकास का लाभ रिसकर समाज के निचले तबके तक पहुंचता है। गौर करने लायक बात ये है कि यह किताबी सिद्धांत जमीनी हकीकत से काफी अलग है। ऐसी सोच रखने वालों को चीन से सबक लेना चाहिए। 2001-2003 के बीच चीन की आर्थिक विकास दर विश्व में सबसे अधिक थी। इन वर्षों में चीन ने सलाना दस फीसदी की दर से आर्थिक विकास किया। यहां रोचक तथ्य यह है कि इस दौरान चीन में आर्थिक तौर पर निचले पायदान पर मौजूद दस फीसदी लोगों की आय ढाई फीसदी घट गई। इससे साफ है कि आर्थिक विकास की तेज गति से आम लोगों के हालत में सकारात्मक बदलाव लाने के दावे कितने खोखले हैं।
देशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के जरिए बार-बार यह बताया जा रहा है कि भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। गफलत में ही सही कुछ समय के लिए भारतीय धनकुबेर मुकेश अंबानी को दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति बता दिया गया। हालांकि, रिलायंस की तरफ से स्पष्टीकरण आने के बावजूद मुकेश दुनिया में सबसे धनी बनने के काफी करीब हैं। भारतीय शेयर बाजार में जारी उछाल के बीच ऐसा होना असंभव भी नहीं है। वैसे शेयर बाजार की दुनिया भी कम मायावी नहीं है। खैर, इन्हीं मुकेश अंबानी ने पत्नी को जन्म दिवस पर 242 करोड़ रुपए का जेट उपहार स्वरूप दिया। तोहपेफ में दिया गया यह एयरबस-319 सभी आधुनिक सुख-सुविघाआें से लैस है। ये वही मुकेश अंबानी हैं जो रिलायंस प्रैफश के बैनर तले करोडों लोगों की रोजी-रोटी पर लात मार रहे हैं। कहना न होगा आज धनकुबेरों के लिए लाखों-करोड़ों का तोहफा देना एक चलन बन गया है। पर अहम सवाल बरकरार है कि मुट्ठी भर लोगों के बढ़ते धन से आम जन को क्या हासिल हो रहा है? देश में व्याप्त भयानक आर्थिक असंतुलन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के सबसे धनी व्यक्ति की आय और औसत प्रतिव्यक्ति आय में 90 लाख गुना का अंतर है। कहने को देश के 26.1 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को अभिशप्त हैं। पर इससे कहीं ज्यादा लोग गरीबी रेखा के ठीक उफपर हैं। भारत में गरीबी रेखा को कैलोरी की उपलब्धाता से जोड़ा गया है। यानी कहा जा सकता है कि गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पा रही है। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक आज भी भारत के बीस करोड़ से ज्यादा लोग बारह रुपए रोज से अपना गुजारा करने को विवश हैं। राज्यवार देखा जाए तो उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में 55 से 57 प्रतिशत ग्रामीण घर चलाने के लिए रोजाना केवल बारह रुपए खर्च कर पाते हैं। मधय प्रदेश के 47 प्रतिशत लोग इस हालत से रूबरू हो रहे हैं। गांवों में रहने वाले दस प्रतिशत लोग तो ऐसे भी हैं जो हर दिन सिर्पफ नौ रुपए ही खर्च कर पाते हैं। कुछ दिनों पहले हुए एक अधययन के मुताबिक झारखंड और राजस्थान के आदिवासी इलाकों में रहने वाले 99.8 प्रतिशत परिवारों को पूरे साल में महीने भर भी दो वक्त की रोटी नहीं मिल पा रही है। इनमें से 76.6 फीसदी परिवार ऐसे थे जिन्होंने महीनों से किसी भी तरह की दाल या दूध का प्रयोग नहीं किया था।
आज यह देश 'भारत' और 'इंडिया' में बंट गया है। इंडिया दिनोंदिन संपन्न होता जा रहा है, जबकि भारत पर विपन्नता की मार गहराती जा रही है। इंडिया के लिए भारत के लोग महज वोट देने और मजदूरी करने के लिए ही बने हैं। देश का बड़ा वर्ग बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम है। वहीं राष्ट्र के नए साम्राज्यवादी रुपयों की होली खेलने में मशगूल हैं। विश्व बैंक के एक अधययन के मुताबिक भारत का धनी वर्ग विश्व के सबसे ज्यादा खर्च करने वाले लोगों में पांचवें स्थान पर है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक स्विट्जरलैंड जैसे महंगे पर्यटन स्थल पर जाने वाले सैलानियों में भारतीयों की संख्या एक चौथाई से अधिक होती है। आज दुनिया की हर लक्जरी कार की खपत भारत में हो रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस देश में पच्चीस हजार लोग ऐसे हैं जिनके पास 70 लाख या उससे अधिक कीमत की एक या उससे ज्यादा मोटर गाड़ियां हैं। देश में तकरीबन दस लाख लोग ऐसे हैं जिनके हाथों में ढाई लाख से लेकर पच्चीस लाख तक की घड़िया बंधी हुई हैं। इस देश में तकरीबन एक लाख लोग ऐसे हैं जो हर साल पांच लाख के गहने खरीदते हैं। इन तथ्यों से देश में व्याप्त आर्थिक विषमता का जायजा आसानी से लिया जा सकता है। दरअसल, भारत और इंडिया के बीच अन्तर उपयोग और उपभोग का है। भारत के पास जहां उपयोगी चीजों का भी टोटा है वहीं इंडिया के जीवन स्तर का पैमाना ही उपभोग बन गया है। एक तरफ लोग भूखे मर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ धनी तबका मोटापे से छुटकारा पाने के लिए मजे-मजे में लाखों रुपये खर्च कर रहा है।
अभी हाल ही में शेयर बाजार के सेंसेक्स ने 19000 अंकों को आंकड़ा छुआ। उसी समय ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 94 वां स्थान दिया गया। शेयर बाजार की तेजी तो चारों तरफ खबर बन गई लेकिन भूखों की दुर्दशा पर किसी ने कुछ नहीं कहा। दरअसल, आर्थिक बदलावों की बयार का फायदा देश के पूंजीपतियों तक ही सिमट कर रह गया है। इस वर्ग की आमदनी में ही तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक 1989-90 की तुलना में आज देश के धनी वर्ग के खर्च करने की ताकत में चालीस प्रतिशत का ईजाफा हुआ है। गैरबराबरी की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि कुछ लोगों के पास महानगरों में कई-कई बंगले हैं तो ऐसे अनगिनत लोग भी हैं जो हर मौसम में खुले में सोने को अभिशप्त हैं। जिनके सर पर न तो छत है और न ही तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़े।
देश में ऐसे अभागे लोग भी हैं जिनके पास उपचार करवाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। इसके चलते हर साल देश में हजारों लोग काल के गाल में समा जा रहे हैं। यूएनडीपी के मुताबिक अभी भी इस देश के हर एक लाख लोगों में से 199 की मौत टीबी की वजह से हो जाती है। इनकी मौत के लिए आवश्यक चिकित्सा सुविघाओं का अभाव ही सर्वाधिक जिम्मेदार है। स्वास्थ्य सुविघाओं को लेकर भी भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में भारी असमानता है। एक अधययन के मुताबिक एक लाख की शहरी आबादी पर 4.48 अस्पताल, 6.16 डिस्पेंसरी और 308 बिस्तर हैं। जबकि एक लाख ग्रामीण लोगों पर 0.77 अस्पताल, 1.37 डिस्पेंसरी, 3.2 जन स्वास्थ्य केन्द्र और महज 44 बिस्तर हैं। हालांकि, इन आंकड़ों से एक बात तो साफ है कि शहरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन गांवों की गत तो और बुरी है।
आज पूरी दुनिया गैरबराबरी की चपेट में है। विकसित से लेकर विकासशील देशों तक में असमानता भयानक रूप ले चुकी है। दुनिया के एक चौथाई लोगों की आमदनी रोजाना एक डालर से भी कम है। दुनिया के आधो लोगों की रोज की आय एक डालर से दो डालर के बीच है। वहीं दूसरी तरफ दुनिया के सबसे धनी 225 व्यक्तियों में से एक के पास औसतन एक से तीन खरब डालर की संपत्तिा है। पूरी दुनिया में हर साल शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य और पोषण्ा पर 28 अरब डालर खर्च होते हैं। जबकि पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में हर साल सौंदर्य प्रसाधनों, आइसक्रीम और पालतू जानवरों के खाद्य पदार्थ पर 35 अरब डालर खर्च किया जाता है। जाहिर है, असमानता की आग में जल रही दुनिया में बुनियादी सुविघाओं को उपलब्ध् कराने की बजाए उन्मुक्त उपभोग पर ज्यादा जोर है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया के बीस प्रतिशत लोग उपलब्धा वस्तुओं व सेवाओं के 86 प्रतिशत का उपभोग कर रहे हैं। अमेरिका के पांच प्रतिशत धनी लोगों के पास देश की साठ प्रतिशत संपत्तिा है। 1960 में दुनिया के सबसे धनी 20 देशों और सबसे निर्धान 20 देशों के लोगों की आमदनी में 18 गुना फर्क था। 1995 में यह अंतर बढ़कर 35 गुना हो गया।
पिछले दस साल पूरी दुनिया के आर्थिक परिदृश्य में बदलाव लाने वाले साबित हुए हैं। इन वर्षों में हर देश की आर्थिक नीतियों में काफी बदलाव आया है। चीन की अर्थव्यवस्था में भी काफी परिवर्तन हुआ है। चीन के आंकड़े बताते हैं कि इन दस सालों में वहां आर्थिक तौर पर सबसे नीचे के दस प्रतिशत लोगों की आमदनी 42 फीसदी बढ़ी है। जबकि शीर्ष के दस फीसदी लोगों की आय में इस दौरान 168 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
दरअसल, आर्थिक असमानता के बीज अवसर की असमानता में छुपे हैं। जिनके पास अच्छे अवसर हैं, उन्होंने सफलता की राह पर तेजी से कदम बढ़ाया और उनकी आमदनी भी तेजी से बढ़ी। गांवों और शहरों के बीच गहराती खाई के लिए अवसर की असमानता काफी हद तक जिम्मेदार है। 1993-94 में ग्रामीण भारत के शीर्ष दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 61,655 रुपए थी। जबकि शीर्ष दस प्रतिशत शहरी लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 1,37,256 रुपए थी। अभी गांव के शीर्ष दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 1,94,044 रुपए है जबकि शहराें के दस प्रतिशत शीर्ष लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 4,97,583 रुपए है। 1993-94 में गांवों के निचले तबके के दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आय 2,807 रुपए थी जबकि ऐसे शहरी लोगों की आमदनी 4,747 रुपए थी। अभी इस ग्रामीण तबके की औसत वार्षिक आमदनी 8,907 रुपए और शहरी तबके की 16,292 रुपए है। भारत में वेतन पाने वालों में शीर्ष के बीस प्रतिशत लोगों का कब्जा 56 प्रतिशत पर है। जबकि नीचे के 20 प्रतिशत लोग महज 3.6 फीसदी वेतन ही पाते हैं। यानी बीस फीसदी लोग ही आधो से ज्यादा वेतन पा रहे हैं।अगर असमानता इसी तेजी के साथ बढ़ती रही तो इससे पैदा होने वाले असंतुलन से निपटना काफी मुश्किल होगा। असंतोष झेल रहे लोगों के हिंसक हो जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। नक्सल जैसी समस्याओं के उभार में कहीं न कहीं आर्थिक और सामाजिक असमानता ही जिम्मेदार रही है। पूंजीपरस्त सरकार अगर समय रहते आर्थिक असमानता पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाती है तो समाज को इसके गंभीर परिण्ााम निश्चित तौर पर भुगतने होंगे।
मानव सभ्यता और आर्थिक असमानता का काफी पुराना साथ रहा है। वर्ग संघर्ष जैसी अवघारणा के उदय के पीछे आर्थिक गैरबराबरी एक बड़ी वजह थी। समय-समय पर इस मसले को लेकर संघर्ष भी होते रहे हैं। पर जैसे-जैसे दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास हुआ, वैसे-वैसे यह आस बंधती गई कि गैरबराबरी पर आघारित व्यवस्था में सुघार होगा। घोषित तौर पर लोकतंत्र में सामाजिक असमानता को पाटना ही मुख्य लक्ष्य होता है। जाहिर है, आर्थिक समता को प्राप्त किए बगैर, सामाजिक समता की बात भी बेमानी होगी।
समाज में चौतरफा पैफल रही विषमता के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार आर्थिक गैरबराबरी ही है। भारत आजादी के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पर चला। अस्सी के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में बदलाव की शुरूआत हुई। इसी दशक में राजीव गांधी प्रघानमंत्री बने और उन्होंने देश में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने का पैफसला किया। राजनैतिक अस्थिरता के उस दौर में उनकी नीतियां मूर्त रूप नहीं ले सकीं। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केन्द्र में कांग्रेस सरकार बनी। अर्थशास्त्री वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 1991 को भारत में औपचारिक तौर पर नई आर्थिक नीतियों को लागू करने की घोषणा कर दी। यानी सरकार ने जन आघारित अर्थव्यवस्था को बाजार या यों कहें धन आघारित अर्थव्यवस्था में बदलने पर औपचारिक मुहर लगा दी। इसके बाद पूंजीवाद की गाड़ी देश में सरपट दौड़ने लगी और आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती गई।
बहरहाल, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आर्थिक गैरबराबरी की वजह से ही राज और समाज में कई तरह की विषमता पैफलती है। आर्थिक असमानता की वजह से समाज में जीवनशैली, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास के अलावा भी कई बुनियादी मोर्चों पर गैरबराबरी बढ़ रही है। इन मोर्चों पर विषमता बढ़ने से स्वभाविक तौर पर सामाजिक असंतुलन पैदा हो रहा है। इनके प्रभाव से व्यवस्था का बचे रहना संभव नहीं है।
समाज में बराबरी लाने के नाम पर राजनीतिज्ञ सियासत करते हैं, वोट बटोरते हैं और सत्ता में आने पर बदले में विषमता को ही गति देने वाली नीतियों पर मुहर लगाते हैं। आज कहने को देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर उंफची है, साथ ही शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक ऐतेहासिक स्तर पर है और विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन इसका फायदा मुट्ठी भर पूंजीपतियों को ही मिल पा रहा है। देश के ज्यादातर लोगों को इससे जरा सा भी फायदा नहीं हो रहा है। आज भी देश में लाखों लोग भूखे पेट सोते हैं, करोड़ों को भर पेट भोजन नहीं मिल पाता है और सत्ता में बैठे लोग भारत को महाशक्ति बनाने का दंभ भर रहे हैं। या यों कहें आम लोगों को गुलाबी सपने दिखाकर बरगला रहे हैं। इस गुलाबी सपने के सौदागर सियासतदानों और पूंजीपतियों की सांठ-गांठ की वजह से भारत में आज जितनी आर्थिक असमानता हो गई है, उतनी तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं थी।
तेजी से बढ़ती आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकार यह कुतर्क देती है कि अगर अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा है तो इसका लाभ नीचे के लोगों तक अवश्य पहुंचेगा। नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री जोसेपफ स्टिगलिट्स ने अपनी पुस्तक 'मेंविंफग ग्लोबलाइजेशन वर्क' में लिखा है कि आर्थिक विकास का लाभ रिसकर समाज के निचले तबके तक पहुंचता है। गौर करने लायक बात ये है कि यह किताबी सिद्धांत जमीनी हकीकत से काफी अलग है। ऐसी सोच रखने वालों को चीन से सबक लेना चाहिए। 2001-2003 के बीच चीन की आर्थिक विकास दर विश्व में सबसे अधिक थी। इन वर्षों में चीन ने सलाना दस फीसदी की दर से आर्थिक विकास किया। यहां रोचक तथ्य यह है कि इस दौरान चीन में आर्थिक तौर पर निचले पायदान पर मौजूद दस फीसदी लोगों की आय ढाई फीसदी घट गई। इससे साफ है कि आर्थिक विकास की तेज गति से आम लोगों के हालत में सकारात्मक बदलाव लाने के दावे कितने खोखले हैं।
देशी-विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के जरिए बार-बार यह बताया जा रहा है कि भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। गफलत में ही सही कुछ समय के लिए भारतीय धनकुबेर मुकेश अंबानी को दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति बता दिया गया। हालांकि, रिलायंस की तरफ से स्पष्टीकरण आने के बावजूद मुकेश दुनिया में सबसे धनी बनने के काफी करीब हैं। भारतीय शेयर बाजार में जारी उछाल के बीच ऐसा होना असंभव भी नहीं है। वैसे शेयर बाजार की दुनिया भी कम मायावी नहीं है। खैर, इन्हीं मुकेश अंबानी ने पत्नी को जन्म दिवस पर 242 करोड़ रुपए का जेट उपहार स्वरूप दिया। तोहपेफ में दिया गया यह एयरबस-319 सभी आधुनिक सुख-सुविघाआें से लैस है। ये वही मुकेश अंबानी हैं जो रिलायंस प्रैफश के बैनर तले करोडों लोगों की रोजी-रोटी पर लात मार रहे हैं। कहना न होगा आज धनकुबेरों के लिए लाखों-करोड़ों का तोहफा देना एक चलन बन गया है। पर अहम सवाल बरकरार है कि मुट्ठी भर लोगों के बढ़ते धन से आम जन को क्या हासिल हो रहा है? देश में व्याप्त भयानक आर्थिक असंतुलन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के सबसे धनी व्यक्ति की आय और औसत प्रतिव्यक्ति आय में 90 लाख गुना का अंतर है। कहने को देश के 26.1 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को अभिशप्त हैं। पर इससे कहीं ज्यादा लोग गरीबी रेखा के ठीक उफपर हैं। भारत में गरीबी रेखा को कैलोरी की उपलब्धाता से जोड़ा गया है। यानी कहा जा सकता है कि गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पा रही है। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक आज भी भारत के बीस करोड़ से ज्यादा लोग बारह रुपए रोज से अपना गुजारा करने को विवश हैं। राज्यवार देखा जाए तो उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में 55 से 57 प्रतिशत ग्रामीण घर चलाने के लिए रोजाना केवल बारह रुपए खर्च कर पाते हैं। मधय प्रदेश के 47 प्रतिशत लोग इस हालत से रूबरू हो रहे हैं। गांवों में रहने वाले दस प्रतिशत लोग तो ऐसे भी हैं जो हर दिन सिर्पफ नौ रुपए ही खर्च कर पाते हैं। कुछ दिनों पहले हुए एक अधययन के मुताबिक झारखंड और राजस्थान के आदिवासी इलाकों में रहने वाले 99.8 प्रतिशत परिवारों को पूरे साल में महीने भर भी दो वक्त की रोटी नहीं मिल पा रही है। इनमें से 76.6 फीसदी परिवार ऐसे थे जिन्होंने महीनों से किसी भी तरह की दाल या दूध का प्रयोग नहीं किया था।
आज यह देश 'भारत' और 'इंडिया' में बंट गया है। इंडिया दिनोंदिन संपन्न होता जा रहा है, जबकि भारत पर विपन्नता की मार गहराती जा रही है। इंडिया के लिए भारत के लोग महज वोट देने और मजदूरी करने के लिए ही बने हैं। देश का बड़ा वर्ग बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम है। वहीं राष्ट्र के नए साम्राज्यवादी रुपयों की होली खेलने में मशगूल हैं। विश्व बैंक के एक अधययन के मुताबिक भारत का धनी वर्ग विश्व के सबसे ज्यादा खर्च करने वाले लोगों में पांचवें स्थान पर है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक स्विट्जरलैंड जैसे महंगे पर्यटन स्थल पर जाने वाले सैलानियों में भारतीयों की संख्या एक चौथाई से अधिक होती है। आज दुनिया की हर लक्जरी कार की खपत भारत में हो रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस देश में पच्चीस हजार लोग ऐसे हैं जिनके पास 70 लाख या उससे अधिक कीमत की एक या उससे ज्यादा मोटर गाड़ियां हैं। देश में तकरीबन दस लाख लोग ऐसे हैं जिनके हाथों में ढाई लाख से लेकर पच्चीस लाख तक की घड़िया बंधी हुई हैं। इस देश में तकरीबन एक लाख लोग ऐसे हैं जो हर साल पांच लाख के गहने खरीदते हैं। इन तथ्यों से देश में व्याप्त आर्थिक विषमता का जायजा आसानी से लिया जा सकता है। दरअसल, भारत और इंडिया के बीच अन्तर उपयोग और उपभोग का है। भारत के पास जहां उपयोगी चीजों का भी टोटा है वहीं इंडिया के जीवन स्तर का पैमाना ही उपभोग बन गया है। एक तरफ लोग भूखे मर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ धनी तबका मोटापे से छुटकारा पाने के लिए मजे-मजे में लाखों रुपये खर्च कर रहा है।
अभी हाल ही में शेयर बाजार के सेंसेक्स ने 19000 अंकों को आंकड़ा छुआ। उसी समय ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 94 वां स्थान दिया गया। शेयर बाजार की तेजी तो चारों तरफ खबर बन गई लेकिन भूखों की दुर्दशा पर किसी ने कुछ नहीं कहा। दरअसल, आर्थिक बदलावों की बयार का फायदा देश के पूंजीपतियों तक ही सिमट कर रह गया है। इस वर्ग की आमदनी में ही तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक 1989-90 की तुलना में आज देश के धनी वर्ग के खर्च करने की ताकत में चालीस प्रतिशत का ईजाफा हुआ है। गैरबराबरी की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि कुछ लोगों के पास महानगरों में कई-कई बंगले हैं तो ऐसे अनगिनत लोग भी हैं जो हर मौसम में खुले में सोने को अभिशप्त हैं। जिनके सर पर न तो छत है और न ही तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़े।
देश में ऐसे अभागे लोग भी हैं जिनके पास उपचार करवाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। इसके चलते हर साल देश में हजारों लोग काल के गाल में समा जा रहे हैं। यूएनडीपी के मुताबिक अभी भी इस देश के हर एक लाख लोगों में से 199 की मौत टीबी की वजह से हो जाती है। इनकी मौत के लिए आवश्यक चिकित्सा सुविघाओं का अभाव ही सर्वाधिक जिम्मेदार है। स्वास्थ्य सुविघाओं को लेकर भी भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में भारी असमानता है। एक अधययन के मुताबिक एक लाख की शहरी आबादी पर 4.48 अस्पताल, 6.16 डिस्पेंसरी और 308 बिस्तर हैं। जबकि एक लाख ग्रामीण लोगों पर 0.77 अस्पताल, 1.37 डिस्पेंसरी, 3.2 जन स्वास्थ्य केन्द्र और महज 44 बिस्तर हैं। हालांकि, इन आंकड़ों से एक बात तो साफ है कि शहरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन गांवों की गत तो और बुरी है।
आज पूरी दुनिया गैरबराबरी की चपेट में है। विकसित से लेकर विकासशील देशों तक में असमानता भयानक रूप ले चुकी है। दुनिया के एक चौथाई लोगों की आमदनी रोजाना एक डालर से भी कम है। दुनिया के आधो लोगों की रोज की आय एक डालर से दो डालर के बीच है। वहीं दूसरी तरफ दुनिया के सबसे धनी 225 व्यक्तियों में से एक के पास औसतन एक से तीन खरब डालर की संपत्तिा है। पूरी दुनिया में हर साल शिक्षा, पेयजल, स्वास्थ्य और पोषण्ा पर 28 अरब डालर खर्च होते हैं। जबकि पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में हर साल सौंदर्य प्रसाधनों, आइसक्रीम और पालतू जानवरों के खाद्य पदार्थ पर 35 अरब डालर खर्च किया जाता है। जाहिर है, असमानता की आग में जल रही दुनिया में बुनियादी सुविघाओं को उपलब्ध् कराने की बजाए उन्मुक्त उपभोग पर ज्यादा जोर है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया के बीस प्रतिशत लोग उपलब्धा वस्तुओं व सेवाओं के 86 प्रतिशत का उपभोग कर रहे हैं। अमेरिका के पांच प्रतिशत धनी लोगों के पास देश की साठ प्रतिशत संपत्तिा है। 1960 में दुनिया के सबसे धनी 20 देशों और सबसे निर्धान 20 देशों के लोगों की आमदनी में 18 गुना फर्क था। 1995 में यह अंतर बढ़कर 35 गुना हो गया।
पिछले दस साल पूरी दुनिया के आर्थिक परिदृश्य में बदलाव लाने वाले साबित हुए हैं। इन वर्षों में हर देश की आर्थिक नीतियों में काफी बदलाव आया है। चीन की अर्थव्यवस्था में भी काफी परिवर्तन हुआ है। चीन के आंकड़े बताते हैं कि इन दस सालों में वहां आर्थिक तौर पर सबसे नीचे के दस प्रतिशत लोगों की आमदनी 42 फीसदी बढ़ी है। जबकि शीर्ष के दस फीसदी लोगों की आय में इस दौरान 168 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
दरअसल, आर्थिक असमानता के बीज अवसर की असमानता में छुपे हैं। जिनके पास अच्छे अवसर हैं, उन्होंने सफलता की राह पर तेजी से कदम बढ़ाया और उनकी आमदनी भी तेजी से बढ़ी। गांवों और शहरों के बीच गहराती खाई के लिए अवसर की असमानता काफी हद तक जिम्मेदार है। 1993-94 में ग्रामीण भारत के शीर्ष दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 61,655 रुपए थी। जबकि शीर्ष दस प्रतिशत शहरी लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 1,37,256 रुपए थी। अभी गांव के शीर्ष दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 1,94,044 रुपए है जबकि शहराें के दस प्रतिशत शीर्ष लोगों की औसत वार्षिक आमदनी 4,97,583 रुपए है। 1993-94 में गांवों के निचले तबके के दस प्रतिशत लोगों की औसत वार्षिक आय 2,807 रुपए थी जबकि ऐसे शहरी लोगों की आमदनी 4,747 रुपए थी। अभी इस ग्रामीण तबके की औसत वार्षिक आमदनी 8,907 रुपए और शहरी तबके की 16,292 रुपए है। भारत में वेतन पाने वालों में शीर्ष के बीस प्रतिशत लोगों का कब्जा 56 प्रतिशत पर है। जबकि नीचे के 20 प्रतिशत लोग महज 3.6 फीसदी वेतन ही पाते हैं। यानी बीस फीसदी लोग ही आधो से ज्यादा वेतन पा रहे हैं।अगर असमानता इसी तेजी के साथ बढ़ती रही तो इससे पैदा होने वाले असंतुलन से निपटना काफी मुश्किल होगा। असंतोष झेल रहे लोगों के हिंसक हो जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। नक्सल जैसी समस्याओं के उभार में कहीं न कहीं आर्थिक और सामाजिक असमानता ही जिम्मेदार रही है। पूंजीपरस्त सरकार अगर समय रहते आर्थिक असमानता पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाती है तो समाज को इसके गंभीर परिण्ााम निश्चित तौर पर भुगतने होंगे।