Monday, August 11, 2008
बीजिंग ओलंपिक में भारत
हिमांशु शेखर
जब तक आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तब तक चीन की राजधानी बीजिंग में खेलों का महासमर यानि ओलंपिक का रोमांच अपने चरम पर होगा। हर देश के खिलाड़ी इस महासंग्राम में पदक के लिए जोर आजमाइश कर रहे होंगे। पर अपने देश के खेलों के लिए यह ओलंपिक खुशियों की बहार लेकर आएगा, ऐसा उम्मीद करना किसी ज्यादती से कम नहीं होगा। क्योंकि भारत की तरफ से जो 57 खिलाड़ी ओलंपिक में नुमाइंदगी करने गए हैं, उनकी हालत से हम सभी वाकिफ हैं। यहां यह मकसद कतई नहीं है कि ओलंपिक में होने वाली बदहाली के लिए खिलाड़ियों को कसूरवार ठहराया जाए। सही मायने में अगर कहा जाए तो देश में खेलों की बदहाली के लिए खेल प्रशासक काफी हद तक जिम्मेवार हैं।
मिसाल के तौर पर हम हॉकी को ही लें। यह पहली दफा है कि भारत की हॉकी टीम ओलंपिक के मैदान में अपना जौहर दिखाने नहीं उतरेगी। उस दौर को बीते ज्यादा वक्त नहीं हुआ है जब भारत हॉकी का सरताज हुआ करता था और दुनिया की कोई भी टीम भारत के सामने टिक नहीं पाती थी। सनर के दशक तक ओलंपिक में भारत का मतलब स्वर्ण पदक होता था। पर अब यह एक ख्वाब सरीखा ही लगता है। यह मानने वालों की कमी नहीं है कि हॉकी की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार भारतीय हॉकी महासंघ रहा है। यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं है कि हॉकी महासंघ के बंटाधार में सियासी दखलंदाजी ने अहम भूमिका निभाई है। केपीएस गिल ने चौदह साल तक भारतीय हॉकी महासंघ को चलाया। या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने देश की हॉकी पर शासन किया। शासन इसलिए कि इस दौरान हॉकी रसातल में पहुंचा दी गई। साथ ही गिल के शासनकाल में हॉकी गलत वजहों से ही सुर्खियों में आया। इस दौरान जब-जब ऐसा लगा कि हॉकी में सुधार हो रहा है तब-तब गिल ने चाबुक से इसे नियंत्रित करने के फेर में बर्बादी के कगार पर पहुंचाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई।
हॉकी में असलम शेर खान का नाम जाना-पहचाना है। वे भारत के ऐतिहासिक विजयों में भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं और विजय पताका लहराने में उन्होंने अहम भूमिका भी निभाई है। बीते दिनों उन्होंने दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में मंच से यह कहा कि देश के खेल संघ नेताओं के लिए अय्याशी का अड्डा बनकर रह गए हैं, जिसे वे अपने अहं की तुष्टि के लिए अपने हिसाब से चलाते हैं। इस बयान से यह साफ है कि खेल संगठनों पर काबिज लोगों के लिए खेल की भलाई अहम मकसद नहीं है। असलम शेर खान ने बगैर किसी लागलपेट के कहा कि केपीएस गिल के शासन काल को भारतीय हॉकी का काला इतिहास वाला खंड कहने में किसी को कोई संकोच नहीं करना चाहिए। केपीएस गिल के तानाशाही रवैए को याद करते हुए उन्होंने 2002-03 की घटनाओं की याद दिलाई। असलम शेर खान ने कहा, '2002-03 में हॉकी की टीम ने जीतना शुरू किया। लगातार कुछ प्रतियोगिताओं में टीम को सफलता मिली। मीडिया ने भी मदद करना शुरू किया। कुछ खिलाड़ी आइकॉन बनकर उभरने लगे। पर यह सब उस वक्त के हॉकी के कर्ताधर्ता को मंजूर नहीं था। इसलिए खिलाड़ियों को मीडिया से बात करने पर पाबंदी लगाई गई और दूसरी तरफ मीडिया तक कम से कम बात पहुंचे, इस बात का भी बंदोबस्त किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हॉकी के उत्थान का राह अवरूध्द हो गया।'
यहां यह बताना जरूरी है कि असलम शेर खान जब यह बोल रहे थे तो उस वक्त तक वे भारतीय हॉकी टीम की चयन समिति के अमयक्ष थे। पर दो दिन बाद ही उनसे यह पद छीन लिया गया। मीडिया में सूत्रों की जानकारी के आधार पर जो खबरें प्रकाशित हुईं उसमें यह बताया गया कि असलम शेर खान इस तरह का बयान मीडिया में दे रहे थे जो इस खेल के आकाओं को नागवार गुजर रहा था। इस घटना ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अपने देश में स्थापित व्यवस्था के खिलाफ सच बोलना आज भी खतरों को आमंत्रण देने जैसा ही है। बहरहाल, यह हॉकी पर हावी सियासत ही थी जिसने धनराज पिल्लै जैसे खिलाड़ी के कैरियर को असमय ही काल के गाल में समा जाने को अभिशप्त कर दिया। इस खेल के आकाओं ने ऐसे ही ना जाने कितने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के खेल से देश को महरूम कर दिया और इन खिलाड़ियों को गुमनामी की जिंदगी गुजारने को मजबूर कर दिया। हॉकी में व्याप्त भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खिलाड़ियों के चयन का पैमाना उनकी काबलियत नहीं बल्कि चयनकर्ताओं को रिश्वत में दिया जाने वाला नोटों का बंडल बन जाता है। पिछले दिनों एक समाचार चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए इसे पूरे देश को दिखाया। जिसमें ज्योतिकुमारन को पैसा लेते हुए सबने देखा। इस शर्मनाक घटना के बाद तात्कालिक तौर पर दिखी हलचल असलम शेर खान की बर्खास्तगी के बाद थमती नजर आ रही है।
खैर, इस बात का अंदाज भारतीय ओलंपिक संघ के अमयक्ष सुरेश कलमाड़ी के बयान से ही लग जाता है कि ओलंपिक में भारत किन उम्मीदों के साथ गया। उनका बयान खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के बजाए हतोत्साहित करने वाला ही था। कलमाड़ी महोदय ने फरमाया कि भारतीय दल से बीजिंग में कोई चमत्कार की उम्मीद नहीं है। अब अगर ओलंपिक संघ का अमयक्ष ही ऐसा बोले तो खिलाड़ियों के आत्मविश्वास की क्या दुर्दशा होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। परंपरा के मुताबिक इस बार भी ऐसा होना तय है कि ओलंपिक में हासिल निराशा के बाद हर खेल महासंघ यह बयान देना शुरू कर देगा कि अगले ओलंपिक की तैयारी वह जोरशोर से करने जा रहे हैं। पर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर चार साल में एक मर्तबा आयोजित होने वाले ओलंपिक में दुबारा नतीजा ढाक के तीन पात वाला नहीं निकले।
आजादी के बाद हॉकी के अलावा अन्य खेलों में भारत को अब तक महज चार ओलंपिक पदक ही मिल पाए हैं। 1956 में केडी जाधव ने मुक्केबाजी में पदक जीता था। इसके बाद भारत के खाते में चालीस साल तक पदकों का सूखा पड़ा रहा। इस सूखे को समाप्त किया 1996 में लिएंडर पेस ने। इसके बाद 2000 में कर्नम मल्लेश्वरी ने भारोनोलन में पदक जीतकर ओलंपिक से भारतीय दल को खाली हाथ लौटने से बचाया। 2004 में निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौर का निशाना सही जगह पर लगा और इसका नतीजा रजत पदक के रूप में सामने आया। यह भी एक अजब विडंबना है कि एक अरब से ज्यादा की आबादी वाला यह देश ओलंपिक में एक पदक को मोहताज है। हालांकि, पदक जीतने में आबादी को कोई तार्किक आधार नहीं माना जा सकता है लेकिन इसके सहारे कम से कम समस्या के स्वरूप को तो समझा ही जा सकता है।
दरअसल, यह समस्या बुनियादी है और खेलों के विकास के लिए आवश्यक ढांचा उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा उपयुक्त माहौल को टोटा भी अपने देश में है। इसका असर खेल के मैदान में दिखना सहज भी है और स्वभाविक भी। इन सबके बावजूद ओलंपिक में पदक नहीं जीतने का मतलब यह नहीं है कि इस देश में विजेता तैयार नहीं हो सकते हैं। अपने देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। कमी है तो अंतरराष्टंीय सुविधाओं और खेल के अनुरूप माहौल की। प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षकों के अभाव से तकरीबन हर खेल को दो-चार होना पड़ रहा है। भारत में यह पता लगाने के लिए अब तक तकनीकी व्यवस्था नहीं हो पाई है जिससे पता चल सके कि कौन खिलाड़ी किस प्रतिस्पर्धा के लायक है। इसके अभाव में अक्सर होता यह है कि गलत खिलाड़ी को बड़ी प्रतिस्पर्धाओं में भेज दिया जाता है और सही खिलाड़ी घर पर बैठा ही रह जाता है। प्रशिक्षण के ढांचे का कमजोर होना भी खेल और खिलाड़ियों के बुरी गत के लिए काफी हद तक जिम्मेवार है। मौजूदा दौर में खेलों का विकास काफी हद तक पैसे पर भी निर्भर हो गया है। इस लिहाज जब तक खेल में पैसा नहीं लगाया जाएगा तब तक अच्छे परिणाम की उम्मीद बेमानी ही साबित होगी। इन चीजों का असर यह होता है कि खिलाड़ियों में अपेक्षित आत्मविश्वास ही नहीं पैदा हो पाता है।
इन मुश्किलों को झेलते हुए बीजिंग गए भारतीय दल से बहुत ज्यादा उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। इसके बावजूद निशानेबाजी में भारत की संभावनाएं ठीक दिख रही हैं। विश्व रैंकिंग में उनकी मजबूत स्थिति यह साबित कर रही है कि पदक की दौड़ में वे शामिल हैं। समरेश जंग ने बीते कुछ दिनों में निशानेबाजी की दुनिया में अच्छा-खासा नाम कमाया है। उन्होंने राष्टंमंडल खेलों में अपना जलवा जमकर बिखेरा था। उनसे ओलंपिक में भी अपना जादू बिखेरने की आस लगाना गलत नहीं होगा। टैंप निशानेबाजी में मानवजीत संधु का दावा भी कमजोर नहीं है। इसके अलावा अंजलि भागवत, अवनीत कौर, गगन नारंग और संजीव राजपूत से भी उम्मीद की जा सकती है। मुक्केबाजों के पिछले दिनों के रिकार्ड को देखते हुए उनसे भी कुछ उम्मीद की जा सकती है। सबसे ज्यादा उम्मीद है हॉकी के डबल्स मुकाबले में। क्योंकि यहां भारत की नुमाइंदगी पूरी दुनिया में अपना जलवा बिखेर चुकी लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी करेगी। विंबलडन में विजय पताका लहराने के साथ-साथ इस जोड़ी ने कई ग्रैंड स्लैम अपने नाम किए हैं। आपसी मतभेदों के चलते यह जोड़ी बनती-बिगड़ती रही है। इस दफा राष्टं के लिए दोनों धुरंधरों ने एक साथ खेलने का फैसला किया है। अब देखने वाली बात यह होगी कि इस जोड़ी की मेहनत क्या गुल खिलाती है। बहरहाल, देश में खेल संस्कृति पैदा करने और वैश्विक स्तर पर खेलों की दुनिया में भारत को स्थापित करने के लिए आज जरूरत इस बात की है खेल और सियासत को अलग-अलग किया जाए और बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाया जाए। स्कूल के स्तर पर ही प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को तलाशने और फिर उन्हें तराशने की प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाना भी बेहद जरूरी है।
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