Tuesday, November 11, 2008

करार पर भ्रम बरकरार


हिमांशु शेखर
समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है।
आखिरकार भारत और अमेरिका ने परमाणु करार को आखिरी रूप दे ही डाला। दोनों तरफ के सक्षम लोगों ने करार के आखिरी मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए और इस करार ने अमली रूप ले लिया। इस करार का विरोध करने वालों की हर बात की अनदेखी करते हुए मनमोहन सिंह ने इसे अमली रूप देकर यह साबित कर दिया कि अब जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश संचालित हो रहा है उसमें जुबानी विरोध का बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। यह एक गंभीर संकेत है जिसे समझना जरूरी है।
परमाणु करार के मसले पर जितना देशव्यापी विरोध हुआ उतना विरोध हाल के दिनों में किसी मामले पर नहीं दिखा। राजनीतिक स्तर पर भी इस करार को लेकर विरोध का स्वर हर ओर उभर रहा था और अभी भी लोग इसका विरोध कर रहे हैं। करार को अमली रूप देने के खातिर विश्वास मत हासिल करने के दौरान भारतीय लोकतंत्र को शर्मशार करने वाली घटना को पूरी दुनिया ने देखा। हर किसी ने जाना कि सरकार ने विश्वास मत पाने के लिए कैसे रास्ते अख्तियार किए। विश्वास मत पाने को ही सरकार ने करार के प्रति सेंस ऑफ द हाउस मानकर तमाम विरोधों और लोकतांत्रिक परंपराओं को दरकिनार करते हुए इसे आगे बढ़ाया। इससे एक बात तो साफ है कि अब लोकतांत्रिक तरीके से किए जाने वाले विरोध को मौजूदा व्यवस्था महत्व देना उचित नहीं समझती। इससे यह बात भी निकलकर सामने आ रही है कि अब अगर सही मायने में किसी मसले पर किसी समूह को विरोध दर्ज कराना हो तो उसे इसके लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। ऐसे में फिर लोकतांत्रिक आस्था और कानून व्यवस्था का क्या हश्र होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता।
खैर, करार पर दस्तखत के बाद भी कई मुद्दों पर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। भारत सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि भारत हाइड एक्ट से बंधा हुआ नहीं है। बल्कि भारत तो सिर्फ 123 समझौते से बंधा हुआ है और इसी के तहत आगे बढ़ेगा। जबकि वहीं दूसरी तरफ कोंडलिजा राइस हर तरफ यह बयान दे रही हैं कि भारत पर हाइड एक्ट लागू होगा। इससे साफ है कि भारत ने भविष्य में परमाणु परीक्षण्ा करने का अधिकार खो दिया है। साथ ही यह भी कोशिश थी कि परोक्ष रूप से भारत को परमाणु अप्रसार संधि यानी सीटीबीटी से भी बांधा जाए और इसमें अमेरिका कामयाब रहा है। इससे इतना तो साफ है कि हिंदुस्तान का शीर्ष नेतृत्व इस अहम मसले पर देश की जनता को गुमराह कर रहा है।
बहरहाल, करार की आड़ मे हो रहे खेल को समझने के लिए इसे अंतिम रूप दिए जाने से पहले की गतिविधियों को जानना-समझना जरूरी है। करार को लेकर जब आखिरी दौर की बातचीत चल रही थी और इसका मसौदा अमेरिकी सिनेट में था, उस समय वहां एक अहम घटना घटी। अमेरिकी सीनेट के एक शक्तिशाली पैनल ने एक ऐसे विधेयक को मंजूरी दी जिसमें अमेरिकी कानूनों का उल्लंघन करने की हालत में एनएसजी देशों या अन्य किसी स्रोत से भारत को परमाणु उपकरणों, सामग्रियों या प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण को रोकने का प्रावधान है। इस विधेयक के एक प्रावधान में साफ तौर पर लिखा गया है, ‘परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य भागीदार देशों या किसी अन्य स्रोत से भारत को परमाणु उपकरण सामग्रियों या प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को रोकना अमेरिका की नीति है।’ यहां यह बताते चलें कि इसके जरिए हाइड एक्ट के प्रावधानों को ही और मजबूत बनाया गया है। हाइड एक्ट के तहत जैसे ही अमेरिका भारत पर प्रतिबंधों को थोपेगा वैसे ही वह हर तरफ से भारत को मिलने वाले पफायदों को रोकने के लिए कानूनी तौर पर सक्रिय हो जाएगा।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग करार हाइड एक्ट, अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम और अन्य अमेरिकी कानूनों के अधीन होगा। ऐसे में अगर भारत के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री यह कहकर देश को क्यों भ्रम में रख रहे हैं कि भारत पर हाइड एक्ट नहीं लागू होगा। इसी विधेयक में आगे जाकर इसे और ज्यादा स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि 123 समझौते का हर प्रावधान हाइड एक्ट या परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की कानूनी आवश्यकताओं के अधीन रहेगा। भारतीय सत्ताधीशों के दावे की पोल अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के उस बयान से भी खुल जाती है जिसमें उन्होंने कहा है कि 123 समझौता एक राजनीतिक वचनबध्दता है जो अमेरिका पर कानूनन बाधयकारी नहीं है।
इससे पहले जब करार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में था तो उस वक्त एक पत्र लीक हुआ। यह पत्र अमेरिकी प्रशासन द्वारा वहां की कांग्रेस को लिखा गया था। इस पत्र में कई ऐसे आपत्तिजनक प्रावधान हैं जिनसे अब तक भारतीय खेमा पल्ला झाड़ते रहा है। इस पत्र में उल्लेख किए गए प्रावधानों पर अभी तक भारत सरकार की तरफ से कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया है। पत्र में तीसरे सवाल के जरिए यह पूछा गया कि क्या 123 समझौता हाइड एक्ट से किसी भी मामले में परे है? इसके जवाब में बुश प्रशासन ने कहा कि यह समझौता हाइड एक्ट और परमाणु ऊर्जा अधिनियम से पूरी तरह बंधा हुआ है। इस पत्र के प्रश्न संख्या चार से लेकर नौ तक में यह साफ तौर पर लिखा गया है कि कोई भी संवेदनशील प्रौद्योगिकी भारत को नहीं दी जाएगी। साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि 123 समझौते में संशोधन का कोई प्रस्ताव नहीं है। इसके अलावा भारत सरकार यह कहते रही है कि ईंधन को रिप्रोसेस करने का अधिकार भारत के पास सुरक्षित है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह भारत का स्थाई अधिकार है। पर इस पत्र के सवाल संख्या 26 से 29 के जवाब से यह बात साफ हो जाती है कि इस मोर्चे पर भी भारत सरकार झूठ बोल रही है। पत्र में 123 समझौते के अनुच्छेद ग्यारह और बारह का हवाला देते हुए बताया गया है कि भारत को ईंधन के रिप्रोसेसिंग का अधिकार उसी हालत में हासिल होगा जब वह खुद की लागत पर नया केंद्र स्थापित करे या फिर आईएईए की निगरानी में करे। इसके अलावा भारत परमाणु ईंधन की रिप्रोसेसिंग तब कर पाएगा जब वह अमेरिका द्वारा किए गए समझौते और अमेरिकी दिशानिर्देशों का पालन करेगा।
प्रधानमंत्री अक्सर यह कहते रहे हैं कि भारत अपने असैन्य परमाणु कार्यक्रम और संयंत्रें की निगरानी आईएईए के साथ किए गए समझौते के अनुसार ही करने की अनुमति देगा। समझौते में पफालबैक सेफगार्ड के जरिए इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर किसी कारण से आईएईए निगरानी को सही तरीके से अंजाम देने में असफल रही तो अमेरिका अपनी एजेंसी या अन्य किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्था से निगरानी करवाएगा। 123 समझौते की धारा 10 और 16(3) के तहत मनमोहन सिंह सरकार ने इस अतिरिक्त निगरानी को स्वीकार कर लिया है। चौंकाने वाली बात तो इसकी भाषा से निकलकर सामने आ रही है। समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री समेत दूसरे मंत्री भी बार-बार इससे उलटा बयान दे रहे हैं।
जार्ज बुश ने अपने शासनकाल में इस करार को अमली रूप देकर इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद सत्ता में आने वाले किस रूप में इस करार को देखेंगे और इसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे। अमेरिका के चुनावी माहौल को देखते हुए बराक ओबामा का पलड़ा भारी लगता है। बताते चलें कि जार्ज बुश रिपब्लिकन पार्टी से हैं जबकि बराक ओबामा डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं। दोनों की नीतियों में कई मोर्चे पर पफर्क दिखता है। इसलिए ओबामा के करार समर्थक बयानों के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि उनका रवैया कैसा रहता है।

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