Monday, November 17, 2008

एक एनकाउण्टर का मीडिया एनकाउण्टर

हिमांशु शेखर
जामिया एनकाउण्टर पर कोई सवा महीने तक मीडिया ने अपने तरीके से एनकाउण्टर जारी रखा। इस मसले पर मीडिया दो खेमे में बंटा हुआ साफ तौर पर दिख रहा है। एक खेमा वह है जो मानता है कि यह एनकाउंटर फर्जी है। इस खेमे के कुछ लोग तो इसे एनकाउंटर कहने से भी हिचक रहे हैं। उनका मानना है कि इसे हत्याकांड कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं दूसरा खेमा ऐसा है जो इस एनकाउंटर को सही मानता है।
उसका कहना है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत पुलिस की कार्रवाई को गलत ठहराना सही नहीं है। यहां एक बात बिल्कुल साफ है कि दोनों खेमों में से किसी के पास भी पुख्ता और विश्वसनीय जानकारी नहीं है। इसके बावजूद दोनों तरफ के लोग अपने-अपने निष्कर्ष को बेबाकी के साथ स्थापित करने पर तुले हुए हैं। इस रवैये को देखते हुए यह लगता है कि जिसका हित जिसमें सधता है उसने वैसी लाइन ले ली है। सच के साथ खड़ा होते हुए दूध का दूध और पानी का पानी करने का साहस कोई खेमा नहीं दिखा पा रहा है। जामिया एनकाउंटर के मीडिया कवरेज पर एक रिपोर्ट आई है- दिल्ली ब्लास्टः ए लुक ऐट एनकाउण्टर कवरेज. कुल २७ पृष्ठों की रिपोर्ट है जिसे तैयार किया है दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने। इस रिपोर्ट में महीने भर के दौरान मीडिया द्वारा इस पूरे घटनाक्रम की जिस तरह से रिपोर्टिंग की गयी है उसकी विशद और तटस्थ समीक्षा की गयी है. इस रपट के जरिए यह बात उभर कर सामने आई है कि एक ही घटना के कवरेज में मीडिया में कितना विरोधभास हो सकता है। इस रिपोर्ट में अध्ययन के खातिर अंग्रेजी अखबारों में से टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दि हिंदू और दि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एनकाउंटर संबंधी खबरों का चयन किया गया है। इसके अलावा हिंदी के दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा और उर्दू के राष्ट्रीय सहारा में इस घटना से संबंधित खबरों को अध्ययन का आधर बनाया गया है।
इस रपट से जो बात उभर कर सामने आ रही है उससे साफ है कि पत्रकारिता के नैतिक मूल्य केवल इलैक्ट्रानिक मीडिया से ही नहीं बल्कि प्रिंट मीडिया से भी बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं। बटला हाउस के एल-18 में गोली चलने की शुरूआत को लेकर भी अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग समय बताया गया। 19 सितंबर को हुई इस घटना की खबर अगले दिन के सभी अखबारों के पहले पन्ने पर प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हिंदुस्तान टाइम्स और दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर के मुताबिक गोलीबारी की शुरूआत ग्यारह बजे हुई। जबकि इंडियन एक्सप्रेस ने वहीं के एक निवासी के हवाले से बताया कि गोलीबारी की शुरूआत पौने दस बजे हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने कोई भी समय नहीं प्रकाशित किया। वहीं मेल टुडे ने बताया कि वहां गोलियों की बरसात ग्यारह बजे से शुरू हुई। हिंदुस्तान के मुताबिक गोलीबारी साढ़े दस बजे शुरू हुई। वहीं अमर उजाला ने यह छापा कि गोली चलने की शुरूआत पौने ग्यारह बजे हुई और ग्यारह बजे गोलीबारी समाप्त हो गई।गोलीबारी कितने देर तक हुई, इसको लेकर भी हर अखबार अलग-अलग तथ्य सामने रखते हुए दिखा। हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक गोली पंद्रह मिनट तक चली। वहीं इसी संस्थान के हिंदी अखबार हिंदुस्तान के मुताबिक डेढ़ घंटे तक गोलीबारी हुई। अब पहला सवाल तो यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में एक ही संस्थान के दो अखबारों में इतना विरोधभास आखिर क्यों है? क्या इसे सतही रिपोर्टिंग कहना वाजिब नहीं होगा? खैर, टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक यह मुठभेड़ पचीस मिनट तक चली। मेल टुडे की माने तो गोलीबारी आधे घंटे तक चली। पंजाब केसरी ने यह अविध् एक घंटा बताया जबकि अमर उजाला ने सवा घंटा। वहीं उर्दू के राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक गोलीबारी तकरीबन दो घंटे तक चली। इस मुठभेड़ में कितनी राउंड गोलियां चलीं, इस बात को लेकर भी अखबारों में विरोधभास नजर आया। टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक पचीस राउंड गोलियां पुलिस के तरफ से चलाई गईं जबकि आठ राउंड गोलियां आतंकियों ने चलाईं। इंडियन एक्सप्रेस, दि हिंदू, हिंदुस्तान, पंजाब केसरी और उर्दू राष्ट्रीय सहारा ने बताया कि पुलिस की तरपफ से 22 राउंड गोलियां चलाई गईं। इसमें से किसी ने भी यह नहीं बताया कि दूसरे तरपफ से पफायरिंग कितने राउंड हुई। राष्ट्रीय सहारा हिंदी और अमर उजाला ने भी बताया कि पुलिस ने 22 राउंड गोलियां चलाईं जबकि आतंकियों की तरपफ से आठ राउंड गोलियां चली। इसके अलावा इस रपट में इस घटना से जुड़ी और भी कई तथ्यात्मक विरोधभासों को दर्शाया गया है। आतंकियों से बरामद हथियार को लेकर भी हर अखबार अलग-अलग दावे कर रहा था। इस ऑपरेशन को अंजाम दे रही टीम में पुलिसकर्मियों की संख्या को लेकर भी विरोधभास है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा पांच अधिकारियों के साथ इस घटना को अंजाम दे रहे थे। वहीं मेल टुडे के मुताबिक पंद्रह पुलिसकर्मियों की टीम ने इस घटना को अंजाम दिया। जबकि वीर अर्जुन बताता है कि इस ऑपरेशन में पचास पुलिसकर्मी शामिल थे। नवभारत टाइम्स के मुताबिक पुलिसकर्मियों की संख्या चौबीस थी। इस बात को लेकर भी अखबारी रपटों में साफ फर्क दिखाई देता है कि मोहन चंद शर्मा को कितनी गोली लगी थी। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, मेल टुडे, दि हिंदू, वीर अर्जुन और हिंदी राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी। नवभारत टाइम्स यह संख्या चार और जनसत्ता पांच बता रहा था।दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट की रिपोर्ट कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गयी. अगर गोली आंतकवादियों की बंदूक से निकली थी तो आज तक उसे फोरेंसिक जांच के लिए क्यों नहीं भेजा गया? विशेषज्ञों की जांच-पड़ताल के बावजूद भी आज तक यह बात साफ नहीं हो पायी है कि इंस्पेक्टर शर्मा को गोली पीछे से मारी गयी या आगे से? एक बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है कि इंस्पेक्टर शर्मा को कितनी गोली लगी थी. दो, तीन या फिर और ज्यादा? स्पेशल सेल की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी जबकि जिन डाक्टरों ने आपरेशन किया उनका कहना था कि शर्मा को दो गोली लगी थी. अब ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में तथ्यों को लेकर इतना विरोधभास क्यों है? तथ्यों का विरोधभास सिपर्फ इसी घटना तक सीमित नहीं है। बल्कि आम तौर पर इसे हर छोटी-बड़ी घटना के कवरेज में देखा जा सकता है। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अखबार में प्रकाशित होने से पहले खबरों के तथ्यों की पड़ताल करने की परंपरा खत्म होती जा रही है। यह बात तो स्वीकारना करना ही होगा कि आखिर कोई ना कोई कड़ी कमजोर हुई है।

Tuesday, November 11, 2008

करार पर भ्रम बरकरार


हिमांशु शेखर
समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है।
आखिरकार भारत और अमेरिका ने परमाणु करार को आखिरी रूप दे ही डाला। दोनों तरफ के सक्षम लोगों ने करार के आखिरी मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए और इस करार ने अमली रूप ले लिया। इस करार का विरोध करने वालों की हर बात की अनदेखी करते हुए मनमोहन सिंह ने इसे अमली रूप देकर यह साबित कर दिया कि अब जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत देश संचालित हो रहा है उसमें जुबानी विरोध का बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। यह एक गंभीर संकेत है जिसे समझना जरूरी है।
परमाणु करार के मसले पर जितना देशव्यापी विरोध हुआ उतना विरोध हाल के दिनों में किसी मामले पर नहीं दिखा। राजनीतिक स्तर पर भी इस करार को लेकर विरोध का स्वर हर ओर उभर रहा था और अभी भी लोग इसका विरोध कर रहे हैं। करार को अमली रूप देने के खातिर विश्वास मत हासिल करने के दौरान भारतीय लोकतंत्र को शर्मशार करने वाली घटना को पूरी दुनिया ने देखा। हर किसी ने जाना कि सरकार ने विश्वास मत पाने के लिए कैसे रास्ते अख्तियार किए। विश्वास मत पाने को ही सरकार ने करार के प्रति सेंस ऑफ द हाउस मानकर तमाम विरोधों और लोकतांत्रिक परंपराओं को दरकिनार करते हुए इसे आगे बढ़ाया। इससे एक बात तो साफ है कि अब लोकतांत्रिक तरीके से किए जाने वाले विरोध को मौजूदा व्यवस्था महत्व देना उचित नहीं समझती। इससे यह बात भी निकलकर सामने आ रही है कि अब अगर सही मायने में किसी मसले पर किसी समूह को विरोध दर्ज कराना हो तो उसे इसके लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। ऐसे में फिर लोकतांत्रिक आस्था और कानून व्यवस्था का क्या हश्र होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता।
खैर, करार पर दस्तखत के बाद भी कई मुद्दों पर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। भारत सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि भारत हाइड एक्ट से बंधा हुआ नहीं है। बल्कि भारत तो सिर्फ 123 समझौते से बंधा हुआ है और इसी के तहत आगे बढ़ेगा। जबकि वहीं दूसरी तरफ कोंडलिजा राइस हर तरफ यह बयान दे रही हैं कि भारत पर हाइड एक्ट लागू होगा। इससे साफ है कि भारत ने भविष्य में परमाणु परीक्षण्ा करने का अधिकार खो दिया है। साथ ही यह भी कोशिश थी कि परोक्ष रूप से भारत को परमाणु अप्रसार संधि यानी सीटीबीटी से भी बांधा जाए और इसमें अमेरिका कामयाब रहा है। इससे इतना तो साफ है कि हिंदुस्तान का शीर्ष नेतृत्व इस अहम मसले पर देश की जनता को गुमराह कर रहा है।
बहरहाल, करार की आड़ मे हो रहे खेल को समझने के लिए इसे अंतिम रूप दिए जाने से पहले की गतिविधियों को जानना-समझना जरूरी है। करार को लेकर जब आखिरी दौर की बातचीत चल रही थी और इसका मसौदा अमेरिकी सिनेट में था, उस समय वहां एक अहम घटना घटी। अमेरिकी सीनेट के एक शक्तिशाली पैनल ने एक ऐसे विधेयक को मंजूरी दी जिसमें अमेरिकी कानूनों का उल्लंघन करने की हालत में एनएसजी देशों या अन्य किसी स्रोत से भारत को परमाणु उपकरणों, सामग्रियों या प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण को रोकने का प्रावधान है। इस विधेयक के एक प्रावधान में साफ तौर पर लिखा गया है, ‘परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य भागीदार देशों या किसी अन्य स्रोत से भारत को परमाणु उपकरण सामग्रियों या प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को रोकना अमेरिका की नीति है।’ यहां यह बताते चलें कि इसके जरिए हाइड एक्ट के प्रावधानों को ही और मजबूत बनाया गया है। हाइड एक्ट के तहत जैसे ही अमेरिका भारत पर प्रतिबंधों को थोपेगा वैसे ही वह हर तरफ से भारत को मिलने वाले पफायदों को रोकने के लिए कानूनी तौर पर सक्रिय हो जाएगा।
इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग करार हाइड एक्ट, अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम और अन्य अमेरिकी कानूनों के अधीन होगा। ऐसे में अगर भारत के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री यह कहकर देश को क्यों भ्रम में रख रहे हैं कि भारत पर हाइड एक्ट नहीं लागू होगा। इसी विधेयक में आगे जाकर इसे और ज्यादा स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि 123 समझौते का हर प्रावधान हाइड एक्ट या परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की कानूनी आवश्यकताओं के अधीन रहेगा। भारतीय सत्ताधीशों के दावे की पोल अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के उस बयान से भी खुल जाती है जिसमें उन्होंने कहा है कि 123 समझौता एक राजनीतिक वचनबध्दता है जो अमेरिका पर कानूनन बाधयकारी नहीं है।
इससे पहले जब करार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में था तो उस वक्त एक पत्र लीक हुआ। यह पत्र अमेरिकी प्रशासन द्वारा वहां की कांग्रेस को लिखा गया था। इस पत्र में कई ऐसे आपत्तिजनक प्रावधान हैं जिनसे अब तक भारतीय खेमा पल्ला झाड़ते रहा है। इस पत्र में उल्लेख किए गए प्रावधानों पर अभी तक भारत सरकार की तरफ से कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया है। पत्र में तीसरे सवाल के जरिए यह पूछा गया कि क्या 123 समझौता हाइड एक्ट से किसी भी मामले में परे है? इसके जवाब में बुश प्रशासन ने कहा कि यह समझौता हाइड एक्ट और परमाणु ऊर्जा अधिनियम से पूरी तरह बंधा हुआ है। इस पत्र के प्रश्न संख्या चार से लेकर नौ तक में यह साफ तौर पर लिखा गया है कि कोई भी संवेदनशील प्रौद्योगिकी भारत को नहीं दी जाएगी। साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि 123 समझौते में संशोधन का कोई प्रस्ताव नहीं है। इसके अलावा भारत सरकार यह कहते रही है कि ईंधन को रिप्रोसेस करने का अधिकार भारत के पास सुरक्षित है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि यह भारत का स्थाई अधिकार है। पर इस पत्र के सवाल संख्या 26 से 29 के जवाब से यह बात साफ हो जाती है कि इस मोर्चे पर भी भारत सरकार झूठ बोल रही है। पत्र में 123 समझौते के अनुच्छेद ग्यारह और बारह का हवाला देते हुए बताया गया है कि भारत को ईंधन के रिप्रोसेसिंग का अधिकार उसी हालत में हासिल होगा जब वह खुद की लागत पर नया केंद्र स्थापित करे या फिर आईएईए की निगरानी में करे। इसके अलावा भारत परमाणु ईंधन की रिप्रोसेसिंग तब कर पाएगा जब वह अमेरिका द्वारा किए गए समझौते और अमेरिकी दिशानिर्देशों का पालन करेगा।
प्रधानमंत्री अक्सर यह कहते रहे हैं कि भारत अपने असैन्य परमाणु कार्यक्रम और संयंत्रें की निगरानी आईएईए के साथ किए गए समझौते के अनुसार ही करने की अनुमति देगा। समझौते में पफालबैक सेफगार्ड के जरिए इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर किसी कारण से आईएईए निगरानी को सही तरीके से अंजाम देने में असफल रही तो अमेरिका अपनी एजेंसी या अन्य किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्था से निगरानी करवाएगा। 123 समझौते की धारा 10 और 16(3) के तहत मनमोहन सिंह सरकार ने इस अतिरिक्त निगरानी को स्वीकार कर लिया है। चौंकाने वाली बात तो इसकी भाषा से निकलकर सामने आ रही है। समझौते में निगरानी करने वालों के लिए इंस्पेक्टर यानी निरीक्षक के बजाए एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इससे यह भी साफ हो रहा है कि भारत ने समझौते के तहत अपने परमाणु संयंत्रें तक विदेशी ताकतों को पहुंचने की अनुमति प्रदान कर दी है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री समेत दूसरे मंत्री भी बार-बार इससे उलटा बयान दे रहे हैं।
जार्ज बुश ने अपने शासनकाल में इस करार को अमली रूप देकर इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद सत्ता में आने वाले किस रूप में इस करार को देखेंगे और इसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे। अमेरिका के चुनावी माहौल को देखते हुए बराक ओबामा का पलड़ा भारी लगता है। बताते चलें कि जार्ज बुश रिपब्लिकन पार्टी से हैं जबकि बराक ओबामा डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं। दोनों की नीतियों में कई मोर्चे पर पफर्क दिखता है। इसलिए ओबामा के करार समर्थक बयानों के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि उनका रवैया कैसा रहता है।

Saturday, October 11, 2008

करार पर वार की दरकार


हिमांशु शेखर
भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के लागू हो जाने से फायदा कम लेकिन नुकसान ज्यादा दिख रहा है। इसके बावजूद देश के नीति निर्धारकों पर सनकीपन इस कदर हावी है कि वे तमाम तथ्यों और अध्ययनों को झुठलाते हुए इस करार को अंतिम रूप दे रहे हैं। समझोते के पक्ष में माहौल बनाने के लिए सत्तापक्ष सरकारी मशीनरी का ईस्तेमाल करते हुए जमकर प्रोपेगंडा कर रहा है।भारत और अमेरिका के बीच होने वाले परमाणु करार को लेकर हर तरफ चर्चाएं चल रही हैं।

करार के मसले पर ही पैदा हुए विवाद ने वाम मोर्चा को सरकार से अलग किया। इसके बाद मनमोहन सिंह ने समाजवादी पार्टी के सहारे अपनी सरकार बचा ली। विश्वास प्रस्ताव के दौरान सरकार के पक्ष में मतों को जुटाने के लिए हर उचित-अनुचित रास्तों को अपनाया गया। अंतत: सरकार ने सदन में अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। सरकार ने इस जीत को परमाणु करार के लिए सदन का समर्थन बताकर मसौदे को आगे बढ़ा दिया। परमाणु करार अभी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईएश् और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजीश् के पाले में है। ऐसा साफ तौर पर लग रहा है कि अमेरिकी लाबिंग और भारत जैसे बड़े बाजार में बेधड़क घुसने के लोभ की वजह से इन दोनों जगहों से परमाणु करार आगे बढ़ जाएगा और फिर अमेरिका इसे आखिरी रूप देगा।

इसके बाद यह लागू हो जाएगा।बहरहाल, इसके लागू हो जाने से फायदा तो कम लेकिन नुकसान ज्यादा दिख रहे हैं। पर इन सबके बावजूद देश के नीति निर्धारकों पर सनकीपन इस कदर हावी है कि वे तमाम तथ्यों और अध्ययनों को झुठलाते हुए इस करार को अंतिम रूप दे रहे हैं। सरकार बार-बार यह दावा कर रही है कि परमाणु करार हो जाने के बाद हम इतनी बिजली पैदा कर पाएंगे कि घर-घर तक उजियारा फैल जाएगा और गांवों में सदियों से चला आ रहा अंधियारा पलक झपकते दूर हो जाएगा।कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसमें थोड़ी सी भी ईमानदारी हो वह साफ तौर पर यह बता सकता है कि ये दावे खोखले हैं।

बताते चलें कि इन खोखले दावों के पक्ष में माहौल बनाने के लिए सत्तापक्ष सरकारी मशीनरी का ईस्तेमाल करते हुए जमकर प्रोपेगंडा कर रहा है।एक नहीं कई अध्ययन इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि परमाणु ऊर्जा की लागत ताप विद्युत ऊर्जा से दुगनी है। अगर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी अमेरिका से मंगाई जाएगी तो यह लागत बढ़कर तिगुनी हो जाएगी। पर सत्ता में बैठे हुए लोग इस तथ्य को जानते हुए भी परमाणु ऊर्जा का राग अलाप रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? भारत में विदेशों के साथ होने वाले सौदों की पोल कई बार खुल चुकी है। वह चाहे बोफोर्स मामला हो या फिर तहलका प्रकरण से विवाद में आए रक्षा सौदे। सत्ता में बैठे लोगों की अदूरदर्शिता ऐसे मामलों में झलकती रही है।

महाराष्ट्र में कुछ साल पहले बिजली जरूरतों को पूरा करने के नाम पर एनरान बिजली परियोजना लगाई गई थी। उस समय यह दावा किया गया था कि इससे महाराष्ट्र की बिजली की समस्या से काफी हद तक पार पा लिया जाएगा। पर नतीजा इसके उलटा ही निकला। एनरान में उत्पादित बिजली इतनी महंगी साबित हुयी कि इसे बंद ही करना पड़ा। इस पूरे प्रकरण में सरकार को तकरीबन दस हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा।परमाणु करार को अमेरिका भी भारत के लिए बेहद जरूरी बता रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी अच्छी है तो अमेरिका ने पिछले तीन दशकों में कोई भी परमाणु बिजली घर क्यों नहीं लगाया? उल्लेखनीय है कि वहां 104 परमाणु बिजली घर हैं।

इसमें से सभी तीस साल से अधिक फराने हैं। परमाणु करार का समर्थन करने वाले बड़े जोर-शोर से फ्रांसस का उदाहरण देते हैं। ये लोग कहते हैं कि फ्रांसस को 75 फीसदी बिजली परमाणु बिजली घरों से मिलती है। यह बिल्कुल सही है। लेकिन अगर परमाणु रिएक्टरों से बिजली पैदा करना वाकई लाभप्रद है तो प्रफंास अपने यहां और परमाणु बिजली घर क्यों नहीं स्थापित कर रहा है। गौरतलब है कि आने वाले दिनों में वहां सिर्फ एक परमाणु रिएक्टर प्रस्तावित है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि आणविक बिजली बेहद महंगी साबित हो रही है। एक अच्छा उदाहरण आस्टेलिया का भी है। आस्टेलिया के पास दुनिया में सबसे ज्यादा यूरेनियम है। पर वहां एक भी परमाणु बिजली घर नहीं है।

इसका सीधा संबंध लागत से है। जब कम लागत पर वही चीज उत्पादित की जा सकती है तो कोई भी उसका उत्पादन ज्यादा लागत पर क्यों करेगा।अमेरिका और आस्टेलिया जैसे देश भारत जैसे देशों के साथ परमाणु करार को इसलिए आगे बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि इससे उनका व्यापार बढ़ेगा। आस्टेलिया को अपना यूरेनियम बेचने के लिए एक बड़ा बाजार मिल जाएगा। अमेरिका के रक्षा उद्योग को भी भारत जैसे बड़े बाजार से पैसा कमाने का मौका मिल पाएगा। यह बात अमेरिका के विदेश मंत्री कोंडलिजा राइस के बयान से भी साफ हो जाती है। उन्होंने कुछ महीने पहले कहा कि 123 समझौते के बाद अमेरिका के साथ-साथ पूरी दुनिया के परमाणु ऊर्जा कारोबार में जान आएगी।

यह समझौता निजी क्षेत्र को पूरी तरह से दिमाग में रखकर तैयार किया गया है। सारी दुनिया जानती है कि हथियार और फनर्निर्माण का खेल अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापार है और इस व्यापार को बढ़ाने की कवायद में भारत के साथ होने वाला परमाणु करार भी है। 16 नवंबर, 2006 को अमेरिकी सीनेट ने समझौते को मंजूरी दी। उसी महीने के आखिरी सप्ताह में 250 सदस्यों वाला व्यापारियों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया जिसमें जीई एनर्जी, थोरियम पावर, बीएसएक्स टेक्नोलोजिज और कन्वर डायन जैसी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे। इसके बाद अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन ने कहा, ‘अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के पास भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए लाबिंग की है। अब उसे मालदार ठेके चाहिए।’

इन ठेकों को पाने के लिए लाकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप गु्रमन, हानीवेल और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां भारत में अपना दफ्तर चला रही हैं। इससे साफ है कि अमेरिका की दिलचस्पी ऊर्जा के उत्पादन के मामले में भारत को सहयोग करने की नहीं बल्कि यहां से ज्यादा से ज्यादा पैसा बटोरने में है। सौ बिलियन डालर के फराने पड़ चुके रिएक्टर अमेरिका के पास पड़े हैं। जाहिर है कि इसे खपाने के लिए अमेरिका को ग्राहक चाहिए। इसलिए भारत से करार करने को अमेरिका इतना बेकरार नजर आ रहा है ताकि ये रिएक्टर भारत को बेचे जा सकें।ऐसा अनुमान है कि 2020 में भारत में आठ लाख मेगावाट बिजली पैदा होगी। अगर आणविक ऊर्जा की योजना अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगी तो 20,000 मेगावाट पैदा कर पाएगी, जिसकी लागत होगी 11 लाख करोड़ रुपए। इसके लिए आठ लाख हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी। रिएक्टर के पांच किलोमीटर की परिधि में आबादी नहीं रहेगी। इन क्षेत्रें से बेदखल कर दिए जाने वाले लोगों का फनर्स्थापन कैसे होगा, इस बात पर भी अभी स्थिति साफ नहीं की गई है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर यह सब हो भी जाता है तो एक यूनिट बिजली की उत्पादन लागत होगी 21 रुपए। अब यह सवाल उठना लाजमी है कि इतनी महंगी दर पर बिजली खरीदेगा कौन? जिस देश में आज भी करोड़ों लोग अपना जीवन यापन बीस रुपए रोजाना से भी कम पर करने को अभिशप्त हैं, वहां इक्कीस रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदने की बात सोचना भी खुली आंखों से ख्वाब देखने जैसा होगा।करार के समर्थक यह भ्रम भी फैला रहे हैं कि भारत में ऊर्जा की मांग में बहुत ज्यादा ईजाफा हो रहा है। पर भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 1997-2002 के बीच बिजली खपत की दर 5.8 फीसदी की दर से बढ़ी। 2002-06 में यह पांच फीसद हो गई। मौजूदा दौर में इसके चार फीसदी रहने की आशा है। 2006 में भारत की बिजली उत्पादन क्षमता 1,50,700 मेगावाट थी। मांग से तालमेल रखने के लिए 2007-12 में इसमें 32,650 मेगावाट की बढ़ोतरी करनी पड़ेगी। इस मामले में सरकार कई बार अपनी ही बात को काटती नजर आती है।

ऊर्जा मंत्रालय कहता आया है कि बिजली उत्पादन की क्षमता में 60,000 मेगावाट की बढ़ोतरी की जरूरत है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी साठ हजार मेगावाट की जरूरत को ही संसद में रेखांकित करते रहे हैं। पर ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे 80,000 मेगावाट जोड़ने की बात करते हैं।परमाणु करार हो जाने के बाद परमाणु क्षेत्र में स्वदेशी शोध एवं विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना एवं बचाना असंभव हो जाएगा। ऐसे में परमाणु ऊर्जा के मामले में हर चीज के लिए अमेरिका जैसे देशों का मुंह ताकना पड़ेगा।दुनिया के ज्यादातर देश परमाणु ऊर्जा के उत्पादन से किनारा करते जा रहे हैं। यह बात कई अध्ययनों से उभर कर सामने आ रही है। वर्ल्ड वाच इंस्ट्टियूट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में 2007 में महज 2000 मेगावाट की बढ़ोतरी हुई। अभी यह 3,72,000 मेगावाट है और इसकी विकास दर आधा फीसदी है। आधा फीसदी की यह विकास दर भी स्थाई नहीं है। 1964 से अब तक दुनिया में 124 रिएक्टर बंद कर दिए गए जिनकी कुल उत्पादन क्षमता 36800 मेगावाट थी। 1990 में विश्व के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी सोलह प्रतिशत थी। 2007 में यह घटकर पंद्रह प्रतिशत हो गई।

सुरक्षा की दृष्टि से भी परमाणु रिएक्टरों के जरिए ऊर्जा का उत्पादन करना खतरे से खाली नहीं है। तीन दशक पहले अमेरिका के थ्री माइल आइसलैंड में परमाणु दुर्घटना हुई थी। इस परमाणु दुर्घटना ने वहां के असैन्य परमाणु कार्यक्रम पर ग्रहण लगा दिया। इसका असर यह हुआ कि 1978 के बाद अमेरिका में कोई परमाणु रिएक्टर नहीं लगा। दो दशक पहले 1986 में रूस के चेर्नोबिल की परमाणु दुर्घटना ने पूरी दुनिया को हिला दिया। ऐसा अनुमान है कि इस दुर्घटना की वजह से तकरीबन नब्बे हजार लोग काल के गाल में समा गए। इस परमाणु केंद्र को स्थापित करने में जितनी लागत लगी थी उससे तीन गुना अधिक नुकसान हुआ। अपने देश की सुरक्षा व्यवस्था की बदहाली से हम सब वाकिफ हैं। जब भी कोई आतंकवादी हमला होता है तो बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन फिर भी आतंकी हमलों का सिलसिला थमता नहीं है। ऐसी स्थिति को देखते हुए आणविक केंद्रों पर आतंकवादी हमले की संभावना हमेशा बनी रहेगी।

अगर कभी ऐसा हो गया तो जो हालात पैदा होंगे उसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।परमाणु ऊर्जा के उत्पादन से जुड़े लोगों के साथ-साथ आसपास के ईलाकों में रहने वाले लोगों पर भी इसका खतरनाक असर पड़ना तय है। भारत में जादूगोड़ा में यूरेनियम निकाला जाता है। वहां के लोग विकिरण्ा से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इसकी वजह से वहां तरह-तरह की बीमारियां हो रही हैं और अब तक कई लोग काल कवलित हो चुके हैं। इसके अलावा परमाणु ऊर्जा घरों में काम करने वालों की हालत भी बेहद खतरनाक होती है। 1980 के सरकारी आंकड़ाें के मुताबिक रेडिएशन से भारत के परमाणु ऊर्जा घरों में काम करने वाले मजदूरों के प्रभावित होने का खतरा वैश्विक औसत से दस गुना ज्यादा है। इसके बाद इस संबंध में सरकार ने अब तक कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है। अमेरिका की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है।

चालीस के दशक से लेकर बिल क्लिंटन राज तक यहां लगभग छह लाख लोग रेडियोएक्टिव किरणों से प्रभावित हुए हैं।भारत और अमेरिका के बीच हो रहे परमाणु करार पर चर्चा के दौरान हाइड एक्ट की चर्चा बार-बार होती है। दरअसल, इस करार की ज्यादातर विवादास्पद बातें इसी एक्ट में हैं। हाइड एक्ट एक तरह से भारत को अमेरिका का कठफतली बना कर छोड़ रहा है। हाइड एक्ट की धारा 102-13 में साफ तौर पर इस बात का उल्लेख है कि अगर अमेरिकी कानून के तहत किसी भी वजह से भारत को होने वाला परमाणु निर्यात प्रतिबंधित हो जाए तो वह किसी और देश से इसकी आपूर्ति नहीं करवाएगा।

इस एक्ट की धारा 103-6 कहती है कि ऐसी हालत में अमेरिका अन्य देशों को भारत को होने वाले ईंधन की आपूर्ति को रोकने के लिए प्रोत्साहित करेगा। धारा 103-ए-1 के मुताबिक भारत द्वारा परमाणु हथियार बनाने की हर कोशिश को रोकना अमेरिकी सरकार की प्रतिबध्दता है। धारा 106 के मुताबिक अगर अमेरिकी राष्ट्रपति वहां की कांग्रेस को यह बता देता है कि भारत ने कोई परमाणु हथियार विकसित कर लिया है तो यह करार स्वत: निरस्त हो जाएगा और भारत को इस करार के तहत प्राप्त सारी प्रौद्योगिकी वापस करनी होगी। हाइड एक्ट की धारा 109 के मुताबिक भारत को अमेरिका के साथ परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए काम करना होगा।

अगर अमेरिकी राष्ट्रपति यह रपट दे देगा कि भारत इस दिशा में साथ नहीं दे रहा है तो भी यह करार समाप्त हो जाएगा।17 अगस्त 2007 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में कहा था, ‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बदलते घटनाक्रम से हम परिचित हैं। परमाणु हथियार हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और रखेंगे। रणनीतिक फैसलों को लेकर हमारी स्वायत्तता अक्षुण्ण बनी रहेगी। परमाणु करार को एनपीटी की तरह बंदिशों को थोपने के लिए बैकडोर रास्ता नहीं बनने दिया जाएगा।’ लेकिन वे भूल जाते हैं कि हाइड एक्ट के अनुसार अगर भारत परमाणु परीक्षण करता है तो यह करार अपने आप टूट जाएगा और सारी प्रौद्योगिकी वापस करनी होगी। अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 132 और 133 के तहत वहां के राष्ट्रपति को करार तोड़ने का अधिकार है।यह बात बिल्कुल साफ है कि आणविक करार से भारत को महज पांच फीसदी ऊर्जा मिलेगी।

अहम सवाल यह है कि इसके लिए अपनी विदेश नीति को गिरवी रखा जाना कितना वाजिब है? भारत किस देश के साथ कैसा संबंध रखे, इस बात को तय करने का परोक्ष अधिकार अमेरिका को कैसे दिया जा सकता है? इसके अलावा भारत सरकार का यह दावा बिल्कुल बेबुनियाद है कि वह आईएईए से सीधे संपर्क में है और एनपीटी पर दस्तखत नहीं करेगी। सच यह है कि आईएईए के सेफगार्ड और जांचकर्ता करार एनपीटी से ही संबंधित हैं।

इस करार का असर भारत और ईरान के संबंधों पर पड़ना शुरू हो गया है। भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए भारत और ईरान के बीच होने वाला गैस पाईप लाईन समझौता एक मील का पत्थर साबित हो सकता था। पर अमेरिकी दबाव में भारत के सत्ताधीशों ने इसकी समय सीमा समाप्त हो जाने दी। जबकि अमेरिकी सरकार के सामने ही एक रपट पेश की गई है जिसमें यह बताया गया है कि आने वाले दिनों में ऊर्जा का उत्पादन गैस आधारित होगा। इसलिए अमेरिका अब गैस के भंडारों पर कब्जा जमाने की नीति पर काम कर रहा है। तेल पर कब्जा जमाने की अमेरिकी नीति से पूरी दुनिया परिचित है।

हर कोई जानता है कि ईराक पर अमेरिकी हमला तेल को हथियाने के लिए ही किया गया था। अब अमेरिका आणविक हथियारों का मसला गरमाकर ईरान पर हमले की योजना बना रहा है ताकि वहां के गैसभंडारों पर कब्जा जमाया जा सके। ईरान पर हमले की स्थिति में अमेरिका के लिए भारत में सैन्य अड्डा होना बेहद जरूरी है। इस दृष्टि से भी अमेरिका परमाणु करार के बहाने भारत को अपने साथ लाना चाह रहा है।

इस करार का असर भारत और चीन के संबंधों पर भी पड़ना तय है। हाल ही में अमेरिकी सीनेट के समक्ष एक रिपोर्ट पेश की गई है जिसमें बताया गया है कि आने वाले पंद्रह सालों में अमेरिका का चीन के साथ एक युध्द संभावित है। अगर ऐसा होता है तो चीन पर हमला करने के लिए भारत में सैन्य अड्डा होना अमेरिका के लिए बेहद फायदेमंद होगा। पर चिंता की बात यह है कि ईरान या चीन के साथ अगर अमेरिका की लड़ाई होती है और इसमें भारत की जमीन का इस्तेमाल वहां हमला करने के लिए किया जाएगा तो जवाबी हमलों का सामना भी भारत को ही करना पड़ेगा। यानि जंग होगी अमेरिका और ईरान के बीच या अमेरिका तथा चीन के बीच और मारे जाएंगे हिंदुस्तानी।

परमाणु समझौते की आड़ में इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका भारत के साथ कई तरह के सैन्य समझौते कर रहा है।परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के मामले में एक गंभीर समस्या इसके कचरे का निस्तारण भी है। उपयोग में लाए गए परमाणु ईंधन का निस्तारण करना बेहद जटिल प्रक्रिया है। कुछ समय पहले ब्रिटेन में एक परमाणु ईंधन स्टोर लीक हो गया जिससे हजार किलोमीटर के दायरे का पानी प्रदूषित हो गया। भारत को आणविक कचरा सुरक्षित फेंकने के लिए हर साल तीन अरब डालर खर्च करने होंगे। यह भी तय नहीं है कि भारत अपना परमाणु कचरा कहां फेंकेगा।

सोचने वाली बात यह है कि अभी तक प्लास्टिक और इलैक्ट्रानिक कचरे के निस्तारण की प्रक्रिया हम तलाश नहीं पाए हैं तो फिर परमाणु कचरे से हमकैसे निपटेंगे।खैर, इन तथ्यों के बाद यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए क्या किया जाए? भारत में थोरियम आधारित परमाणु ऊर्जा को विकसित किया जा सकता है क्योंकि हमारे पास इसका विशाल भंडार है। इस मामले में आस्ट्रेलिया के बाद भारत का दूसरा स्थान है। कन्याकुमारी के आसपास थोरियम की भरमार है। थोरियम के मामले में भारत की वैश्विक हिस्सेदारी पच्चीस फीसदी से ज्यादा है। इसके अलावा एक अच्छी बात यह भी है कि थोरियम यूरेनियम से सुरक्षित है। इससे अगर ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है तो इससे निकलने वाला कचरा भी कम खतरनाक होता है। इसलिए भारत को अपने आणविक कार्यक्रमों के लिए अपनी नीतियों को अमेरिका जैसे अवसरवादी देशों के पास गिरवी रखने के बजाए अपने संसाधनों के बूते आगे बढ़ना चाहिए।

भारत को अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा कने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक और गैर-पारंपरिक स्रोतों पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए। एक अनुमान के मुताबिक भारत में सिर्फ पवन ऊर्जा के जरिए 45,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। साथ ही सौर किरणों से भी भारी मात्रा में बिजली का उत्पादन हो सकता है। भारत में अभी गैर-पारंपिक ऊर्जा स्रोतों के महज डेढ़ फीसदी का ही प्रयोग हो पा रहा है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। ऊर्जा के इन अक्षय स्रोतों का उपयोग भारत के लिए सर्वथा शुभ होगा।

Sunday, August 24, 2008

ऊर्जा की खोज में




हिमांशु शेखर



कभी जीवन की बुनियादी आवष्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान को षुमार किया जाता था। जिंदगी गुजारने के लिए आज भी ये बेहद जरूरी हैं। पर बीते कुछ दषकों में बदली वैष्विक परिस्थिति और जीवनषैली ने इस कड़ी में ऊर्जा को भी जोड़ दिया है। आज दुनिया का हर देष इस मसले पर चिंतित है। कोई भी अर्थव्यस्था अपनी विकास की रफ्तार को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा किए बगैर बनाए नहीं रख सकती। अभी भारत में परमाणु करार किए जाने के पीछे भी सत्ता में बैठे लोग और सरकारी महकमा बढ़ती ऊर्जा आवष्यकताओं को पूरा किए जाने का ही तर्क दे रही है। हालांकि, यह एक अलग मसला है जिस परमाणु ऊर्जा के जरिए विकास का ख्वाब देष की सरकार संजो रही है, वह खतरों से खाली नहीं है। एक तो परमाणु ऊर्जा की लागत बहुत ज्यादा होती है वहीं दूसरी तरफ अंतरराश्ट्रीय स्तर पर कई बंदिषें भी इस करार के तहत जुड़ी हुई हैं। पर एक बात तो तय है कि जिस तेजी से भारत की ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं, उस तेजी से इसका उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। इस बात को स्वीकारने में भी किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि उपलब्ध संसाधनों और परमाणु ऊर्जा के जरिए भी बात बनने वाली नहीं है। ऐसे में आज वक्त की जरूरत यह है कि वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों को तलाषा जाए और बढ़ती जरूरतों की पूर्ति की जाए। दुनिया के कई देषों ने वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है और एक मिसाल कायम किया है।बहरहाल, जब वैकल्पिक ऊर्जा की बात की जाती है तो सबसे पहले जेहन में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे स्रोत उभरते हैं। पर बात केवल इन्हीं से बनने वाली नहीं है। क्योंकि औद्योगिकरण की जिस डगर पर दुनिया चल रही है उस पर सषक्त ढंग से बने रहने के लिए ऊर्जा जरूरतें काफी बढ़ गई हैं। यह ऊर्जा की बढ़ती मांग ही है कि इसने खुद में एक उद्योग का षक्ल अख्तियार कर लिया है। और ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि ऊर्जा का कारोबार में कुछ उसी तरह का उछाल आने वाला है जिस तरह का उछाल अस्सी के दषक में कंप्यूटर के क्षेत्र में, नब्बे के दषक में इंटरनेट के क्षेत्र में और इक्कीसवी सदी के षुरूआती दौर में नैनो तकनीक के क्षेत्र में आया था। खैर, कुछ साल पहले तक दुनिया का तकरीबन हर देष काफी हद तक ऊर्जा के पारंपरिक साधनों पर ही निर्भर था। इसमें कोयला और तेल प्रमुख थे। बिजली के उत्पादन के लिए भी कोयला पर ही निर्भरता ज्यादा थी। ऐसा बताया जा रहा है कि अभी भारत को जितनी ऊर्जा की जरूरत है उससे चालीस हजार मेगावाट कम बिजली की आपूर्ति हो पा रही है। देष में ज्यादातर बिजली का उत्पादन कोयला आधारित तकनीक से होता है। जिससे कार्बन डाइआक्साड का उत्सर्जन भी भारी मात्रा में होता है। जो पर्यावरण की दृश्टि से बेहद खतरनाक है। एक अनुमान के मुताबिक देष में सलाना तकरीबन पांच हजार करोड़ रुपए का नुकसान बिजली आपूर्ति व्यवस्था के दुरुस्त नहीं होने और बिजली की चोरी की वजह से होता है। एक जानकार ने कुछ साल पहले अपने अध्ययन के आधार पर यह हिसाब लगाया था कि दुनिया को जितनी सूर्य की रोषनी उपलब्ध है, अगर उसका प्रयोग बिजली बनाने में कर लिया जाए तो अभी जितनी बिजली की खपत दुनिया में है उससे बीस हजार गुना ज्यादा बिजली बनाई जा सकती है। इससे मिलती-जुलती बातें कई और अध्ययनों से उभर कर सामने आई हैं। उपलब्ध गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के प्रयोग को गति दिए जाने की दरकार है। इस मामले में भारत की हालत भी बेहद उत्साहजनक नहीं है। भारत में अभी गैरपारंपिक ऊर्जा स्रोतों के महज डेढ़ फीसद का ही प्रयोग हो पा रहा है। ऐसे में इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि अगर उपलब्ध संसाधनों का अच्छी तरह दोहन हो तो देष की ऊर्जा की समस्या से पार पाना एक ख्वाब नहीं रह पाएगा बल्कि हकीकत में तब्दील हो जाएगा। पर विडंबना यह है कि इन ऊर्जा स्रोतों और इनके प्रयोग को लेकर आज भी देष का एक बड़ा तबका गाफिल ही है। अभी हालत यह है कि भारत में वैकल्पिक स्रोतों से बनाई जाने वाली बिजली में दो तिहाई हिस्सेदारी तमिलनाडु की ही है। ऐसा इसलिए है कि वहां सरकारी स्तर पर इन ऊर्जा स्रोतों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया गया। देष भर में गैरपारंपरिक स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन के प्रति लोगों को जागरूक बनाए जाने की जरूरत है। बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए कुछ दषक पहले विष्व ने आणविक ऊर्जा के उत्पादन की ओर भी कदम बढ़ाया। लेकिन यह प्रयोग बेहद उत्साहजनक नहीं रहा और मामला फिर वैकल्पिक ऊर्जा की तलाष पर पहुंच गया। वैकल्पिक ऊर्जा के प्रति दुनिया की बढ़ती रूचि के लिए तेल की बढ़ती कीमतें भी जिम्मेवार हैं। इसके अलावा सब को इस बात का अहसास हो गया कि जिस तेजी से तेल की मांग बढ़ रही है उस तेजी से आपूर्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि तेल के भंडार भी सीमित हैं और इसकी एक अलग अंतरराश्ट्रीय सियासत है। इसलिए तेल की कीमतों को चाहते हुए भी काबू में नहीं रखा जा सकता। बतातें चलें कि वैष्विक बाजार में तेल की कीमत अभी एक सौ चालीस डाॅलर प्रति बैरल के करीब है और जानकारों की मानें तो अभी इसके थमने के आसार नहीं दिख रहे हैं। इसके अलावा ऊर्जा के एक अहम स्रोत के रूप में षुमार किए जाने वाले प्राकृतिक गैस की कीमत भी बढ़ते ही जा रही है और कोयला भी महंगाई के इस दौर मंे अपवाद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है कि देर-सबेर न चाहते हुए भी ऊर्जा के नए रास्तांे को तलाषना ही होगा। इसलिए इस दिषा में सोचने-विचारने और कुछ करने की पहल जितना जल्दी हो उतना ही अच्छा होगा। यह सच है कि कोयला आधारित बिजली घर बनाने की तुलना मंे सौर और पवन ऊर्जा पर आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र लगाने मंे खर्च अधिक आता है। पर उत्पादन लागत के मामले में ये संयंत्र कोयला आधारित संयंत्र को मात देने वाले हैं। इसलिए कुल मिलाजुला कर दीर्घकालिक तौर पर ये फायदे का सौदा साबित होने जा रहे हैं। वैष्विक स्तर पर ऊर्जा के बाजार का आकार काफी बड़ा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर के लोग संयुक्त तौर पर अभी पंद्रह टेट्रावाट बिजली की खपत करते हैं। जिसकी कीमत छह ट्रिलीयन डाॅलर है। जो दुनिया की अर्थव्यवस्था का दसवां हिस्सा है। ऊर्जा की यह मांग 2050 तक बढ़कर तीस टेट्रावाट पर पहुंच जाने की उम्मीद जताई जा रही है। उल्लेखनीय है कि एक टेट्रावाट मंे हजार गिगावाट होते हैं और एक गिगावाट कोयले से चलने वाली किसी भी बिजली घर की अधिकतम उत्पादन क्षमता है। ऊर्जा के इस बड़े बाजार पर कब्जा जमाने के लिए दुनिया की कई नामीगिरामी कंपनियों ने इस क्षेत्र मंे भारी-भरकम निवेष भी किया है। इसमंे जनरल इलैक्ट्रिक्स का नाम सबसे अहम है। यह अमेरिका की प्रमुख इंजीनियरिंग कंपनियों मे से एक है। इस कंपनी ने पवन ऊर्जा के व्यवसाय में अपनी तगड़ी मौजूदगी दर्ज करा ली है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में मजबूत षुरूआत की है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन बनाने के मामले में भी यह कंपनी अव्वल है। कंपनी ने इस साल के जून तक ही तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए का टरबाइन बेचा। दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में षुमार किए जाने वाले बीपी और षेल ने भी वैकल्पिक ऊर्जा के बाजार में दखल देने के लिए तैयारी षुरू कर दी है। इसके लिए ये दोनों कंपनियां बाकायदा षोध करवा रही हैं। संयुक्त राश्ट्र की एक रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में होने वाले निवेष की सलाना विकास दर साठ फीसद है। 2006 की तुलना में 2007 में 148 बिलियन डाॅलर का निवेष इस क्षेत्र मेें किया गया। इसमें सबसे ज्यादा पैसा पवन ऊर्जा में लगाया गया। अकेले इस क्षेत्र में 50.2 बिलियन डाॅलर का निवेष हुआ। जबकि तेजी से बढ़ रहा सौर ऊर्जा का क्षेत्र 28.6 बिलियन डाॅलर की पूंजी आकर्शित कर पाया। गौरतलब है कि अंतरराश्ट्रीय स्तर पर सौर ऊर्जा का बाजार 2004 से सलाना 254 फीसद की दर से विकास कर रहा है। जैव ईंधन में होने वाले निवेष में कमी आई है। क्योंकि इसके सुरक्षित होने पर ही प्रष्न चिन्ह लगने लगे हैं। 2007 में जैव ईंधन में महज 2.1 बिलियन का ही निवेष हो पाया। संयुक्त राश्ट्र की इस रपट में अनुमान लगाया गया है कि वैकल्पिक ऊर्जा का बाजार 2012 तक बढ़कर चार सौ पचास बिलियन डाॅलर तक पहुंच जाएगा। जबकि 2020 तक इसके बढ़कर 600 बिलियन डाॅलर के पार पहंुच जाने की संभावना है। कार्बन क्रेडिट की अवधारणा आ जाने से बड़े से बड़े देष और कंपनी के लिए नए राह को अख्तियार करने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचा है। गौरतलब है कि कार्बन क्रेडिट वह व्यवस्था है जिसके तहत प्रदूशण के स्तर के आधार पर हर देष को अंक मिलते हैं। प्रदूशण की मात्रा एक निष्चित सीमा से अधिक होने पर उस देष को जुर्माना भरना पड़ता है या फिर दूसरे देष से कार्बन क्रेडिट खरीदना पड़ता है। जिस देष में हरियाली ज्यादा होगी और प्रदूशण कम होगा, उसे ज्यादा अंक मिलने की व्यवस्था है और उसके पास ज्यादा कार्बन क्रेडिट संचित होता है। जिसे वह दूसरे देष को बेच भी सकता है। इसलिए अब पारंपिक तरीकों को छोड़कर बदली हालत के हिसाब से रास्ते तलाषे जा रहे हैं। वैसे तो ऊर्जा उत्पादन के लिए सबसे सस्ता जरिया अभी भी कोयला ही बना हुआ है। पर कार्बन क्रेडिट की पेंच ने कोयला के प्रयोग को हतोत्साहित करना षुरू कर दिया है। क्योंकि कोयला से भारी मात्रा में कार्बन डाय आॅक्साइड का उत्सर्जन होता है। इसके निस्तारण के लिए अभी तक कोई सस्ता और सुलभ तरीका नहीं ढूंढा जा सका है। जो तरीके अभी जानकार बता रहे हैं, वे काफी महंगे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा अब प्रदूशण सीधे तौर पर नोटों की गड्डियों से जुड़ गया है। इस वजह से बाजार के बड़े खिलाड़ियों के माथे पर बल पड़ गए हैं। पर यह निष्चय ही पर्यावरण के लिहाज से एक सुखद स्थिति है। क्योंकि इसी बहाने सही ऊर्जा उत्पादन के प्रदूशणकारी माध्यमों पर लगाम तो लग रही है।दुनिया में एक ऐसा तबका भी है कि जो जैव ईंधन को भी वैकल्पिक ऊर्जा के एक स्रोत के तौर पर देखता है। जैव ईंधन के बारे में कुछ साल पहले तक बहुत नफा गिनाए गए थे लेकिन ताजा अध्ययन बताते हैं कि यह नुकसान का सौदा है। अमेरिका में तो वैकल्पिक ऊर्जा का कारोबार किसानों के लिए भी फायदे का सौदा साबित हो रहा है। वहां पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए संयंत्र लगाने के लिए बड़ी कंपनियां किसानों से उनकी जमीन किराए पर ले रही हैं। इसके एवज में जमीन के स्वामी को उसकी जमीन पर लगे संयंत्र से उत्पादन होने वाली बिजली से होने वाली आमदनी का तीन फीसद हिस्सा दिया जा रहा है। जानकारों ने अनुमान लगाया है कि एक हेक्टेयर जमीन देने वाले को हर साल औसतन दस हजार डाॅलर मिलेंगे। जबकि इसी जमीन पर वह मक्के की खेती करता है तो उसे महज तीन सौ डाॅलर की ही आमदनी होगी। यह ऊर्जा के क्षेत्र में बहती बदलाव की बयार ही है कि कोयले से बनने वाले बिजली पर काफी हद तक निर्भर रहने वाला चीन पवन ऊर्जा के उत्पादन के मामले में काफी तेजी से प्रगति कर रहा है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में चीन सलाना 66 फीसद की दर से विकास कर रहा है। सौर ऊर्जा के मामले में भी चीन दूसरे देषों की तुलना में काफी आगे है। सौर प्लेट के निर्माण के मामले में चीन दुनिया भर में अव्वल है। चीन के अधिकांष घरों के छत पर सौर प्लेट लगे हुए हैं। जाहिर है कि इससे वहां के लोगों का बिजली पर होने वाला खर्च बच रहा है। जिसका फायदा आखिरकार चीन की अर्थव्यवस्था को मिल रहा है। पवन ऊर्जा के मामले में स्पेन ने भी दुनिया के लिए एक उदाहरण पेष किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने के लिए वहां की सरकार ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और यह कार्य पूरी तरह से योजना बनाकर किया गया है। अमेरिका में कुल बिजली उत्पादन में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी महज एक फीसद है। पर वहां के नीति निर्माताओं ने 2020 तक इसे बढ़ाकर पंद्रह फीसद तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन में काम आने वाले टरबाइन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। इसमें एक खास तरह के पंखे के इस्तेमाल पर अमेरिका के इंजीनियर षोध कर रहे हैं। अलबर्ट बंेज नामक वैज्ञानिक ने बीसवीं सदी की षुरूआत में ही अपने षोध के आधार पर बता दिया था कि पवन ऊर्जा के लिए प्रयुक्त टरबाइन की कार्यकुषलता 59.3 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकती है। अभी जिन टरबाइनों का उपयोग हो रहा है उनकी कार्यकुषलता पचास फीसद तक है और ऐसी अपेक्षा की जा रही है कि आने वाले दिनों में इसमें और ईजाफा होगा। इसकी वजह से पवन ऊर्जा का उत्पादन लागत भी स्वभाविक तौर पर घटा है और इसमें कमी आने का सिलसिला अभी थमा नहीं है। पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने से पहले अब स्थान का खास तौर पर ध्यान रखा जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि वैसे जगहों पर ही टर्बाइन लगाए जा रहे हैं जहां बिजली उत्पादन के लिए माकूल परिस्थितियां हों। कहना न होगा कि हवा के दबाव का पवन ऊर्जा के उत्पादन में अहम भूमिका है। इसलिए उन्हीं जगहों को चुना जा रहा है जहां वायु का बहाव षक्तिषाली हो। क्योंकि बहाव में औसतन दो किलोमीटर प्रति घंटे का अंतर भी बिजली उत्पादन की क्षमता पर प्रभाव डालने में सक्षम है। वैसे जगहों पर जहां हवा की गति अपेक्षाकृत तेज होती है वहां आमतौर पर लोग नहीं रहते हैं। इस वजह से जहां पवन ऊर्जा का उत्पादन होता है वहां इसकी खपत नहीं होती। इसलिए इसकी आपूर्ति के दौरान बिजली का अच्छा-खासा नुकसान होता है। इस नुकसान को कम से कम करने के लिए भी इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रयासरत हैं और बीते कुछ सालों मेें तो इसे कुछ कम किया भी गया है। जैसे-जैसे इसमें कामयाबी मिलती जाएगी वैसे-वैसे पवन ऊर्जा के प्रति दुनिया भर में रूझान बढ़ता जाएगा। जिसके सकारात्मक परिणाम आने तय हैं।

सूत भी बिजली भी


हिमांशु शेखर


राजस्थान के जयपुर के पास के कुछ गांवों में चरखा ही बिजली उत्पादन का जरिया बन गया है। महात्मा गांधी ने कभी चरखे को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बताया था। आज गांधी के उसी संदेष को एक बार फिर राजस्थान के कुछ लोगों ने चरखे के जरिए पूरे देष को देने की कोषिष की है। इस चरखे को ई-चरखा का नाम दिया गया है। इसे बनाया है एक गांधीवादी कार्यकर्ता एकंबर नाथ ने। जब इस चरखे को दो घंटे चलाया जाता है तो इससे एक खास प्रकार के बल्ब को आठ घंटे तक जलाने के लिए पर्याप्त बिजली का उत्पादन हो जाता है। यहां यह बताते चलें कि बिजली बनाने के लिए अलग से चरखा नहीं चलाना पड़ता बल्कि सूत कातने के साथ ही यह काम होता रहता है। इस तरह से कहा जाए तो ई-चरखा यहां के लोगों के लिए दोहरे फायदे का औजार बन गया है। सूत कातने से आमदनी तो हो ही रही है साथ ही साथ इससे बनी बिजली से घर का अंधियारा दूर हो रहा है। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में चरखा चलाने के काम में महिलाओं की भागीदारी ही ज्यादा है। कई महिलाएं तो ऐसी भी हैं जो बिजली जाने के बाद जरूरत पड़ने पर घर में रोषनी बिखेरने के लिए चरखा चलाने लगती हैं। इस खास चरखे को राजस्थान में एक सरकारी योजना के तहत लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसकी कीमत साढ़े आठ हजार रुपए है। जबकि बिजली बनाने के लिए इसके साथ अलग से एक यंत्र जोड़ना पड़ता है। जिसकी कीमत पंद्रह सौ रुपए है। सरकारी योजना के तहत पचहतर इसे वहां के लोग पचीस फीसद रकम अदा करके खरीद रहे हैं। बाकी रकम किस्तों में अदा करने की व्यवस्था है। इस चरखे को देष भर में बड़े पैमाने पर गांवों में ले जाने की जरूरत है। ताकि ग्रामीण इलाकों में लोगों को स्वरोजगार के साथ-साथ अपनी ऊर्जा जरूरतों का कुछ हिस्सा तो कम से कम उपलब्ध हो सके। वैकल्पिक ऊर्जा की राह अख्तियार करने के मामले में देष के मंदिर भी पीछे नहीं हैं। आंध्र प्रदेष का तिरुमला मंदिर का बड़ा नाम है। यहां हर रोज तकरीबन पांच हजार लोग आते हैं। अब इस मंदिर में खाना और प्रसाद बनाने के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित तकनीक अपनाई जा रही है। इसके अलावा यहां अन्य बिजली की आपूर्ति भी सौर प्लेटों के जरिए ही की जा रही है। इन बदलावों की वजह से यहां से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी आई है। इस मंदिर में सौर ऊर्जा तकनीक की सफलता से प्रेरित होकर राज्य के अन्य मंदिर भी ऐसी तकनीक अपना रहे हंै। गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतांे के प्रयोग को लेकर समाज में अलग-अलग स्थानों पर छोटे-छोटे प्रयोग हो रहे हैं। पर आज वक्त की जरूरत यह है कि इन प्रयोगों को बड़े स्तर पर ले जाया जाए ताकि सही मायने में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति की जा सके। इसके अलावा आज इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि उपलब्ध ऊर्जा के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। दिन में भी जलते रहने वाले स्ट्रीट लाइट और अनावष्यक तौर पर सरकार का महिमामंडन करने वाले विज्ञापन के लिए प्रयोग में लाई जा रही ऊर्जा को भी संरक्षित किए जाने की दरकार है। आजकल दिल्ली में हर तरफ ‘बदल रही है मेरी दिल्ली’ के सरकारी विज्ञापन दिख जाते हैं। रात भर रोषनी से जगमगाने वाले इन विज्ञापनों में अच्छी-खासी बिजली की खपत हो रही है। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर हमें बिजली किस कार्य के लिए चाहिए? अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए या फिर ऐषो-आराम और दिखावे के लिए।

Thursday, August 21, 2008

भारत-अमेरिका परमाणु करार से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें



हिमांशु शेखर
एनपीटी क्या है?
एनपीटी को परमाणु अप्रसार संधि के नाम से जाना जाता है। इसका मकसद दुनिया भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। पहली जुलाई 1968 से इस समझौते पर हस्ताक्षर होना शुरू हुआ। अभी इस संधि पह हस्ताक्षर कर चुके देशों की संख्या 189 है। जिसमें पांच के पास आणविक हथियार हैं। ये देश हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, प्रफांस, रूस और चीन। सिर्फ चार संप्रभुता संपन्न देश इसके सदस्य नहीं हैं। ये हैं- भारत, इजरायल, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया। एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं दी गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को प्रदर्शित करती है। इस संधि का प्रस्ताव आयरलैंड ने रखा था और सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाला राष्ट्र है फिनलैंड। इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने पहली जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। इस आधार पर ही भारत को यह दर्जा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं प्राप्त है। क्योंकि भारत ने पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था।
सीटीबीटी क्या है?
सीटीबीटी को ही व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि कहा जाता है। यह एक ऐसा समझौता है जिसके जरिए परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित किया गया है। यह संधि 24 सितंबर 1996 को अस्तित्व में आयी। उस वक्त इस पर 71 देशों ने हस्ताक्षर किया था। अब तक इस पर 178 देशों ने दस्तखत कर दिए हैं। भारत और पाकिस्तान ने सीटीबीटी पर अब तक हस्ताक्षर नहीं किया है। इसके तहत परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित करने के साथ यह प्रावधान भी किया गया है कि सदस्य देश अपने नियंत्रण में आने वाले क्षेत्रें में भी परमाणु परीक्षण को नियंत्रित करेंगे।
123 समझौता क्या है?
यह समझौता अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 के तहत किया गया है। इसलिए इसे 123 समझौता कहते हैं। सत्रह अनुच्छेदों के इस समझौते का पूरा नाम है- भारत सरकार और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के बीय नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए सहयोग का समझौता। इसके स्वरूप पर भारत और अमेरिका के बीच एक अगस्त 2007 को सहमति हुई। अमेरिका अब तक तकरीबन पच्चीस देशों के साथ यह समझौता कर चुका है। इस समझौते के दस्तावेज में अमेरिका ने भारत को आणविक हथियार संपन्न देश नहीं माना है, बल्कि इसमें यह कहा गया है कि आणविक अप्रसार संधि के लिए अमेरिका ने भारत को विशेष महत्व दिया है।
हाइड एक्ट क्या है?
हाइड एक्ट का पूरा नाम हेनरी जे हाइड संयुक्त राज्य-भारत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा सहयोग अधिनियम 2006 है। यह अमेरिकी कांग्रेस में एक निजी सदस्य बिल के रूप में पास हुआ है। इसमें भारत और अमेरिका के बीच प्रस्तावित परमाणु समझौते से जुड़े नियम एवं शर्तों को समाहित किया गया है। इस समझौते के लिए जब अमेरिका के परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की धारा 123 में संशोधन किया गया तब इसका नाम हाइड एक्ट रख दिया गया।
आईएईए क्या है?
इस संस्था का पूरा नाम इंटरनेशनल एटोमिक एनर्जी एजेंसी है। यह नाभिकीय क्षेत्र में सहयोग का अंतरराष्ट्रीय केंद्र है। इसका गठन 1957 में हुआ था। यह संस्था शांतिपूर्ण और सुरक्षित नाभिकीय प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए काम करती है। इस संस्था का मुख्यालय आस्ट्रिया के विएना में है। अभी इसके महानिदेशक मोहम्मद अलबरदेई हैं। इस संस्था के तीन मुख्य काम हैं- सुरक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी एवं सुरक्षा व संपुष्टि।
45 देशों की एनएसजी क्या है?
एनएसजी का पूरा नाम न्यूक्लियर सर्विस ग्रुप है। इसे ही न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप भी कहा जाता है। इस समय इसके सदस्य देशों की संख्या 45 है। यह ऐसा समूह है जो नाभिकीय सामग्री के निर्यात पर दिशानिर्देश लागू करके नाभिकीय हथियारों के अप्रसार में मदद देता है। इसका गठन 1974 में किया गया था। शुरूआत में इसके सदस्यों की संख्या महज सात थी। उस वक्त भारत ने परमाणु परीक्षण किया था। जिसे उस समय नाभिकीय हथियार वाला देश नहीं कहा जाता था। इसका पहला दिशानिर्देश 1978 में आईएईए के दस्तावेज के रूप में तैयार किया गया था। करार के आगे बढ़ने की स्थिति में नाभिकीय सामग्री प्राप्त करने के लिए भारत को इस समूह के पास जाना पडेग़ा।
ईंधन आपूर्ति की शर्तें क्या हैं?
हाइड एक्ट की धारा 104 और 123 समझौते की धारा 2 देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि हाइड एक्ट भारत को नाभिकीय ईंधन मिलने की राह में रोडे अटकाता है। हाइड एक्ट की धारा 104 के मुताबिक परमाणु ऊर्जा अधिनियम की धारा 123 के तहत हुए भारत के सहयोग के बाबत किसी समझौते और इस शीर्षक के उद्देश्य के तहत किसी करार को लागू होने की स्थिति के बावजूद भारत की नाभिकीय या नाभिकीय ऊर्जा से संबध्द सामग्री, उपकरण्ा या प्रौद्योगिकी का भारत को निर्यात रद्द किया जा सकता है। हमें यूरेनियम की आपूर्ति बाजार भाव पर की जाएगी और इसका दाम भी बाजार की ताकतें ही तय करेंगी। बीते कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूरेनियम की कीमत में चार गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है और इसके दाम थमते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में यूरेनियम की उपलब्धता को लेकर अनिश्चितता बना रहना तय है।
परमाणु बिजली घरों से कितनी बिजली बनेगी?
करार समर्थकों का यह दावा कोरा ख्वाब सरीखा ही है कि 2020 तक भारत की नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन की क्षमता बीस हजार मेगावाट हो जाएगी। अभी देश में पंद्रह रिएक्टर काम कर रहे हैं। जिनसे 3300 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। देश में कुल ऊर्जा उत्पादन अभी एक लाख चालीस हजार मेगावाट है। जाहिर है कि इसमें परमाणु ऊर्जा का योगदान बहुत कम है। वैसे, 1400 मेगावाट बिजली के उत्पादन के लिए नए रिएक्टर अभी बन रहे हैं। कुडुनकुलम और चेन्नई के रिएक्टर तैयार होने पर परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली सात हजार मेगावाट पर पहुंच जाएगी। भारत सरकार के तहत ही काम करने वाला आणविक ऊर्जा विभाग कहता आया है कि देश के पास इतना यूरेनियम है कि अगले तीस साल तक दस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सके। ऐसे में पहले तो हमें अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। ऐसा होते ही परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य को पाने के करीब हम पहुंच जाएंगे। इसके लिए न तो हमें अमेरिका की दादागीरी को झेलना होगा और न ही परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों की खुशामद करनी होगी। अगर 2020 तक बीस हजार मेगावाट के लक्ष्य को पाना है तो 13000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली की व्यवस्था करनी होगी। ऐसा तब ही संभव है जब अगले बारह सालों में हम चार पफास्ट ब्रीडर रिएक्टर, आठ रिएक्टर 700 मेगावाट के और आयातित रिएक्टरों से छह हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन करें। व्यवहारिक तौर पर ऐसा संभव ही नहीं है, चाहे हम कैसा भी करार कर लें। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी 1990 के मध्य से आणविक ऊर्जा की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत पर अटकी हुई है। दूसरी तरफ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि नाभिकीय बिजलीघरों से बनने वाली बिजली में लागत दुगनी होती है। जिस वजह से यह बेहद महंगी भी है।
क्या अमेरिकी कंपनी को ही ठेका मिलेगा?
अमेरिका का नाभिकीय उद्योग विदेशी आर्डरों के भरोसे ही कायम है। क्योंकि पिछले तीस साल में अमेरिका में कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं लगाया गया है। इसलिए अमेरिका की नजर अब भारत से आने वाले अरबों डालर के आर्डरों की ओर लगी हुई है। 150 अरब डालर के इस समझौते से अमेरिकी कंपनियों का मालामाल होना तय है। अमेरिकी कंपनियों के लिए यह समझौता अपने आर्थिक गतिरोध को तोड़ने के लिए सुनहरा अवसर साबित होने जा रहा है। 16 नवंबर 2006 को अमेरिकी सीनेट ने समझौते को मंजूरी दी। उसी महीने के आखिरी हफ्ते में 250 सदस्यों वाला व्यापारियों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया। उसमें जीई एनर्जी, थोरियम पावर, बीएसएक्स टेक्नोलोजिज और कान्वर डायन जैसी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे। अमेरिकी थैलीशाहों के मकसद का खुलासा उनके पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन के बयान से हो जाता है। उन्होंने कहा है, 'अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के पास भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए लाबिंग की है। अब उसे मालदार सैन्य ठेके चाहिए।' इन ठेकों को पाने के लिए लाकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप गु्रमन, हानीवेल और जनरल इलेक्ट्रिक जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां भारत में अपना कार्यालय चला रही हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडलिजा राइस ने कांग्रेस में सापफ-साफ कह भी दिया है कि यह समझौता निजी क्षेत्र को पूरी तरह से दिमाग में रखकर तैयार किया गया है।
परमाणु परीक्षण के बारे में करार में क्या स्थिति हैं?
कोई भी परमाणु परीक्षण बगैर यूरेनियम संवर्धन के हो ही नहीं सकता है। इस समझौते के जरिए भारत के यूरेनियम संवर्धन को प्रतिबंधित किया गया है। हाइड एक्ट के अनुच्छेद 103 में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इस समझौते का मकसद नाभिकीय अप्रसार संधि में शामिल या उससे बाहर के किसी गैर परमाणु शस्त्र संपन्न राज्य द्वारा परमाणु हथियार बनाने की क्षमता विकसित करने का विरोध करना है। इसके अलावा लिखा गया है कि जब तक बहुपक्षीय प्रतिबंध या संधि लागू न हो तब तक भारत को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वह असुरक्षित नाभिकीय स्थानों पर विखंडनीय पदार्थों का उत्पादन न बढ़ाए। हाइड एक्ट में ही इस बात का उल्लेख किया गया है कि अगर भारत कोई परमाणु परीक्षण करता है तो यह समझौता रद्द हो जाएगा और हमें इस करार के तहत प्राप्त सामग्री और प्रौद्योगिकी वापस करनी पड़ेगी।
करार से अमेरिका का हित कैसे सधेगा?
अमेरिका का मकसद अपने हितों को ध्यान में रखते हुए सैन्य प्रभुत्व जमाना है। इसके लिए वह कई सहयोगियों को जोड़कर हर दिशा में सैन्य गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है। इस दिशा में वह भारत को प्रमुख रणनीतिक सहयोगी के तौर पर देखता है। ताईवान, उत्तर कोरिया, मानवाधिकार, लोकतंत्र और एटमी प्रसार के मसले पर अमेरिका और चीन में मतभेद है। इसलिए वह चीन को रोकने के लिए इस इलाके में एक शक्ति संतुलन चाहता है। वह एशिया में नाटो जैसा एक नया संगठन चाहता है। जिसके लिए भारत एक उपयुक्त सैन्य सहयोगी दिखाई पड़ता है। ईरान से युध्द होने की स्थिति में अमेरिका उस पर सैन्य कार्रवाई करने के लिए हिंदुस्तानी सरजमीं का इस्तेमाल करना चाहता है। अमेरिकी कांग्रेस में रखी गई एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले पंद्रह साल के अंदर चीन से उसका एक युध्द संभव है। ऐसा होने पर भारत अमेरिका के लिए चीन पर हमला करने के लिए बेहद उपयुक्त स्थान है।
इस करार के तहत हाइड एक्ट की धारा 109 के जरिए अमेरिका ने यह सुनिश्चित किया है कि परमाणु नि:शस्त्रीकरण के अमेरिकी अभियान में भारत साथ चलने को बाध्य होगा। इस बारे में हर साल अमेरिकी राष्ट्रपति वहां के कांग्रेस में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा, जिसके आधार पर यह तय किया जाएगा कि भारत अमेरिका के मुताबिक काम कर रहा है या नहीं। जाहिर है इससे भारत के निर्णय लेने की क्षमता पर आंच आना तय है।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का क्या इंतजाम है?
हाइड एक्ट प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाता है। साथ ही यह भारत को दोहरे प्रयोग की प्रौद्योगिकी तक पहुंचने से रोकता है। यानी भारत नाभिकीय ईंधन के संपूर्ण चक्र का हकदार नहीं हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति हर साल जो रिपोर्ट वहां की कांग्रेस में रखेंगे, अगर उसमें यह पाया जाता है कि भारत इसका पालन नहीं कर रहा तो वह समझौते को रद्द कर देगा। साथ ही वह अन्य देशों पर भी यह दबाव डालेगा कि वे भारत को एटमी ईंधन और प्रौद्योगिकी की सप्लाई बंद कर दें। हम इस सौदे में पफायदे से ज्याद नुकसान में रहेंगे। भारत को न तो आणविक ईंधन और न ही रिएक्टर कम दाम या मुफ्त में मिलेगा। इसे हमें प्रचलित बाजार मूल्य पर ही खरीदना होगा। जो निश्चय ही स्वदेशी परमाणु शक्ति के दाम को बढ़ा देगा। नाभिकीय तकनीक मिलने का दावा भी खोखला है। एक तो यह बहुत देर से आएगा और दूसरी बात यह कि इसकी मात्र बहुत कम होगी।
करार टूटने पर क्या होगा?
अगर करार टूटता है तो भारत को वो सारी मशीनें, औजार और प्रौद्योगिकी वापस करनी होगी जो इस डील के तहत मिलेगा। इसके अलावा हमारे चौदह परमाणु रिएक्टर पर निगरानी जारी रहेगी। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा करार में किए गए किसी वायदे को तोड़ा जाता है तो ऐसी हालत में क्या होगा, इसका उल्लेख इस समझौते में नहीं किया गया है।

Friday, August 15, 2008

कैसी आजादी, किसकी आजादी


हिमांशु शेखर
हिंदुस्तान की आजादी के इक्सठ साल पूरे होने को हैं। किसी भी राष्ट्र के निर्माण के लिए छह दशक का वक्त कम नहीं होता है। एक ऐसी व्यवस्था जिसकी नींव ही साम्राज्यवादी ताकतों को कुचल कर रखी गई हो, उसे तो प्रगति का पथ सहज और स्वभाविक तौर पर अख्तियार करना चाहिए। पंद्रह अगस्त 1947 के बाद जिन नए निजामों ने सत्ता की बागडोर संभाली, उन्होंने इस राह चलने की बात बार-बार कहकर जनता को भरमाए रखा।जिन लक्ष्यों के साथ महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को एक सफल मुकाम तक पहुंचाया था वे आज भी अधूरी ही हैं। इसके लिए सबसे ज्यादा गुनाहगार तो वही पार्टी है जिसने गांधी के झंडाबरदार होने का दावा किया। सच तो यह है कि गोडसे ने तो गांधी की एक बार हत्या की थी लेकिन गांधी के नाम पर अपनी सियासत चमकाने वालों ने गांधी की हत्या बार-बार की और यह सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा है। गांधी के इस देश में लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाली संसद में नोटांे के बंड हवा में लहराए जाते हैं और सियासत का एक बड़ा दलाल बेशर्मी की सारी हदों को पार करते हुए अपनी तुलना गांधी से करने की हिमाकत कर बैठता है। और धन्य है आजाद भारत की मीडिया, जो उसे पूरा तवज्जह देती है। वो तो भला हो कि संसद के बाहर लगी गांधी की मूत्र्ति पत्थर की है। यह कल्पना ही सिहरन पैदा करने के लिए पर्याप्त है कि अगर उस मूत्र्ति में चेतना होती तो सरेआम लोकतंत्र की नीलामी को देखकर उसकी प्रतिक्रिया क्या होती। सोचने वाली बात यह भी है कि अंग्रेजी सरकार के असेंबली में बम फोड़ने वाले भगत सिंह आजाद भारत के संसद में लोकतंत्र को शर्मशार होते देखकर क्या करते?बहरहाल, आजाद भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था के पतन को इसी बात से समझा जा सकता है कि कभी देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की वजह से जाना जाने वाला सीवान को आज शहाबुद्दीन की वजह से जाना जाता है। इलाहाबाद के पास के फूलपूर की शोहरत इसलिए भी रही है कि कभी यहां से जवाहर लाल नेहरू चुनाव जीतते थे। आज वहां से अतीक अहमद जैसा अपराधी सांसद बन जाता है। गांधीयुग के कांग्रेसी नेता एमएम अंसारी के घर से मुख्तार अंसारी जैसा बाहुबली नुमाइंदा निकलता है। लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतने की यह कैसी आजादी है?कहना न होगा कि आजादी को देश के एक खास तबके ने स्वार्थ साधने के औजार में बखूबी तब्दील कर दिया। ‘भारत’ इस वर्ग के लिए ‘इंडिया’ बन गया। बरास्ते समाजवाद पूंजीवाद को माई-बाप मानने वाली व्यवस्था ने आम लोगों को बाजार में बदल दिया। सियासी सौदागरों ने तो पहले ही उन्हें वोट पाने का जरिया मात्र बनाकर छोड़ दिया। यह कैसी आजादी है जिसमें ‘इंडिया’ वालों के लिए कभी ‘इंडिया शाइनिंग’ होता है तो कभी ‘फील गुड’ लेकिन ‘भारत’ के 84 करोड़ लोग बीस रुपए से भी कम पर जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। इनके लिए आजादी का मतलब तो बस यही है कि शासकों की चमड़ी का रंग बदल गया। आजाद भारत की यह कैसी विडंबना है कि सबसे धनी व्यक्ति की आय और औसत प्रति व्यक्ति आय में नब्बे लाख गुना का अंतर है। अब तो हमें यह सोचना ही होगा कि जिस आजादी का हम जश्न मना रहे हैं, वह कैसी और किसकी आजादी है?